कहानजैनशास्त्रमाळा ]
परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्य- ध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्द्रष्टिः ।
दुःख-सुख करवाना अध्यवसायनी पण आ ज गति छे एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [यः] जे [इति मन्यते] एम माने छे के [आत्मना तु] मारा पोताथी [सत्त्वान्] हुं (पर) जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि] करुं छुं, [सः] ते [मूढः] मूढ ( – मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.
टीकाः — ‘पर जीवोने हुं दुःखी तथा सुखी करुं छुं अने पर जीवो मने दुःखी तथा सुखी करे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते जीव अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते जीव ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.
भावार्थः — ‘हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे’ एम मानवुं ते अज्ञान छे. जेने ए अज्ञान छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; जेने ए अज्ञान नथी ते ज्ञानी छे — सम्यग्द्रष्टि छे.
हवे पूछे छे के आ अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः —