कहानजैनशास्त्रमाळा ]
सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात्; स्वकर्म च नान्ये- नान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैवोपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य सुख- दुःखे कुर्यात् । अतः सुखितदुःखितान् करोमि, सुखितदुःखितः क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ।
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।।१६८।।
तो (हे भाई!) [तैः] तेमणे [दुःखितः] तने दुःखी [कथं कृतः असि] कई रीते कर्यो?
[यदि] जो [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी [दुःखितसुखिताः] दुःखी -सुखी [भवन्ति] थाय छे, [च] अने तेओ [तव] तने [कर्म] कर्म तो [न ददति] देता नथी, तो (हे भाई!) [तैः] तेमणे [त्वं] तने [सुःखितः] सुखी [कथं कृतः] कई रीते कर्यो?
टीकाः — प्रथम तो, जीवोने सुख-दुःख खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे, कारण के पोताना कर्मना उदयना अभावमां सुख-दुःख थवां अशक्य छे; वळी पोतानुं कर्म बीजाथी बीजाने दइ शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं कर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे; माटे कोई पण रीते बीजो बीजाने सुख-दुःख करी शके नहि. तेथी ‘हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे.
भावार्थः — जीवनो जेवो आशय होय ते आशय प्रमाणे जगतमां कार्यो बनतां न होय तो ते आशय अज्ञान छे. माटे, सर्व जीवो पोतपोताना कर्मना उदयथी सुखी-दुःखी थाय छे त्यां एम मानवुं के ‘हुं परने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर मने सुखी-दुःखी करे छे’, ते अज्ञान छे. निमित्तनैमित्तिकभावना आश्रये (कोईने कोईनां) सुख-दुःखनो करनार कहेवो ते व्यवहार छे; ते निश्चयनी द्रष्टिमां गौण छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [इह] आ जगतमां [मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्] जीवोने मरण, जीवित, दुःख, सुख — [सर्वं सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति] बधुंय सदैव नियमथी ( – चोक्कस) पोताना कर्मना उदयथी थाय छे; [परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् कुर्यात्] ‘बीजो पुरुष बीजानां मरण, जीवन, दुःख, सुख करे छे’ [यत् तु] आम जे मानवुं