पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।
मिथ्याद्रशो नियतमात्महनो भवन्ति ।।१६९।।
[एतत् अज्ञानम्] ते तो अज्ञान छे. १६८.
श्लोकार्थः — [एतत् अज्ञानम् अधिगम्य] आ (पूर्वे कहेली मान्यतारूप) अज्ञानने पामीने [ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति] जे पुरुषो परथी परनां मरण, जीवन, दुःख, सुख देखे छे अर्थात् माने छे, [ते] ते पुरुषो — [अहंकृतिरसेन क र्माणि चिकीर्षवः] के जेओ ए रीते अहंकार-रसथी कर्मो करवाना इच्छक छे (अर्थात् ‘हुं आ कर्मोने करुं छुं’ एवा अहंकाररूपी रसथी जेओ कर्म करवानी — मारवा-जिवाडवानी, सुखी-दुःखी करवानी — वांछा करनारा छे) तेओ — [नियतम्] नियमथी [मिथ्याद्रशः आत्महनः भवन्ति] मिथ्याद्रष्टि छे, पोताना आत्मानो घात करनारा छे.
भावार्थः — जेओ परने मारवा-जिवाडवानो तथा सुख-दुःख करवानो अभिप्राय करे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे. तेओ पोताना स्वरूपथी च्युत थया थका रागी, द्वेषी, मोही थईने पोताथी ज पोतानो घात करे छे, तेथी हिंसक छे. १६९.
हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः —
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