परजीवानहं हिनस्मि, न हिनस्मि, दुःखयामि, सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयो- ऽध्यवसायो मिथ्याद्रष्टेः, स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभबन्धहेतुः ।
अथाध्यवसायं बन्धहेतुत्वेनावधारयति — जे आ अज्ञानस्वरूप *अध्यवसाय जोवामां आवे छे [सः एव] ते अध्यवसाय ज, [विपर्ययात्] विपर्ययस्वरूप ( – विपरीत, मिथ्या) होवाथी, [अस्य बन्धहेतुः] ते मिथ्याद्रष्टिने बंधनुं कारण छे.
भावार्थः — जूठो अभिप्राय ते ज मिथ्यात्व, ते ज बंधनुं कारण — एम जाणवुं. १७०.
हवे, आ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे एम गाथामां कहे छेः —
गाथार्थः — [ते] तारी [या एषा मतिः तु] जे आ बुद्धि छे के हुं [सत्त्वान्] जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि इति] करुं छुं, [एषा ते मूढमतिः] ते आ तारी मूढ बुद्धि ज (मोहस्वरूप बुद्धि ज) [शुभाशुभं कर्म] शुभाशुभ कर्मने [बध्नाति] बांधे छे.
टीकाः — ‘पर जीवोने हुं हणुं छुं, नथी हणतो, दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं’ एवो जे आ अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्याद्रष्टिने छे, ते ज (अर्थात् ते अध्यवसाय ज) पोते रागादिरूप होवाथी तेने ( – मिथ्याद्रष्टिने) शुभाशुभ बंधनुं कारण छे.
भावार्थः — मिथ्या अध्यवसाय बंधनुं कारण छे.
हवे, अध्यवसायने बंधना कारण तरीके बराबर नक्की करे छे — ठरावे छे (अर्थात्
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* जे परिणाम मिथ्या अभिप्राय सहित होय ( – स्वपरना एकत्वना अभिप्राय सहित होय) अथवा वैभाविक होय ते परिणाम माटे अध्यवसाय शब्द वपराय छे. (मिथ्या) निश्चय, (मिथ्या) अभिप्राय — एवा अर्थमां पण ते शब्द वपराय छे.