धारणीयम् । न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धेत्वन्तरमन्वेष्टव्यं; एकेनैवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि मारयामि इति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहङ्काररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात् ।
कारण छे एम बराबर नक्की करवुं. अने पुण्य-पापपणे (पुण्य-पापरूपे) बंधनुं बे-पणुं होवाथी बंधना कारणनो भेद न शोधवो (अर्थात् एम न मानवुं के पुण्यबंधनुं कारण बीजुं छे अने पापबंधनुं कारण कोई बीजुं छे); कारण के एक ज आ अध्यवसाय ‘दुःखी करुं छुं, मारुं छुं’ एम अने ‘सुखी करुं छुं, जिवाडुं छुं’ एम बे प्रकारे शुभ-अशुभ अहंकाररसथी भरेलापणा वडे पुण्य अने पाप — बन्नेना बंधनुं कारण होवामां अविरोध छे (अर्थात् एक ज अध्यवसायथी पुण्य अने पाप — बन्नेनो बंध थवामां कोई विरोध नथी).
भावार्थः — आ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे. तेमां, ‘जिवाडुं छुं, सुखी करुं छुं’ एवा शुभ अहंकारथी भरेलो ते शुभ अध्यवसाय छे अने ‘मारुं छुं, दुःखी करुं छुं’ एवा अशुभ अहंकारथी भरेलो ते अशुभ अध्यवसाय छे. अहंकाररूप मिथ्याभाव तो बन्नेमां छे; तेथी अज्ञानमयपणे बन्ने अध्यवसाय एक ज छे. माटे एम न मानवुं के पुण्यनुं कारण बीजुं छे अने पापनुं कारण बीजुं छे. अज्ञानमय अध्यवसाय ज बन्नेनुं कारण छे.
‘आ रीते खरेखर हिंसानो अध्यवसाय ज हिंसा छे एम फलित थयुं’ — एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [सत्त्वान्] जीवोने [मारयतु] मारो [वा मा मारयतु] अथवा न मारो — [बन्धः] कर्मबंध [अध्यवसितेन] अध्यवसानथी ज थाय छे. [एषः] आ, [निश्चयनयस्य] निश्चयनये, [जीवानां] जीवोना [बन्धसमासः] बंधनो संक्षेप छे.
३९०