लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं, केवलमात्मनोऽनर्थायैव ।
यत्किल बन्धयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्बन्धनं मोचनं
जीवानाम् । जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते,
पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नहि होवाथी, ‘हुं आकाशना फूलने चूंटुं छुं’ एवा अध्यवसाननी माफक मिथ्यारूप छे, केवळ पोताना अनर्थने माटे ज छे (अर्थात् मात्र पोताने ज नुकसाननुं कारण थाय छे, परने तो कांई करी शकतुं नथी).
भावार्थः — जे पोतानी अर्थक्रिया ( – प्रयोजनभूत क्रिया) करी शकतुं नथी ते निरर्थक छे, अथवा जेनो विषय नथी ते निरर्थक छे. जीव पर जीवोने दुःखी-सुखी आदि करवानी बुद्धि करे छे, परंतु पर जीवो तो पोताना कर्या दुःखी-सुखी थता नथी; तेथी ते बुद्धि निरर्थक छे अने निरर्थक होवाथी मिथ्या छे — खोटी छे.
हवे पूछे छे के अध्यवसाय पोतानी अर्थक्रिया करनारुं कई रीते नथी? तेनो उत्तर कहे छेः —
गाथार्थः — हे भाई! [यदि हि] जो खरेखर [अध्यवसाननिमित्तं] अध्यवसानना निमित्ते [जीवाः] जीवो [कर्मणा बध्यन्ते] कर्मथी बंधाय छे [च] अने [मोक्षमार्गे स्थिताः] मोक्षमार्गमां स्थित [मुच्यन्ते] मुकाय छे, [तद्] तो [त्वम् किं करोषि] तुं शुं करे छे? (तारो तो बांधवा-छोडवानो अभिप्राय विफळ गयो.)
टीकाः — ‘हुं बंधावुं छुं, मुकावुं छुं’ एवुं जे अध्यवसान छे तेनी पोतानी अर्थक्रिया जीवोने बांधवा, मूकवा ( – मुक्त करवा, छोडवा) ते छे. परंतु जीव तो, आ अध्यवसायनो सद्भाव होवा छतां पण, पोताना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी नथी बंधातो, नथी मुकातो; अने
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