एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि तानि समस्तान्यपि शुभाशुभ- कर्मबन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । तथाहि — यदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्, ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं,
गाथार्थः — [एतानि] आ (पूर्वे कहेलां) [एवमादीनि] तथा आवां बीजां पण [अध्यवसानानि] अध्यवसान [येषाम्] जेमने [न सन्ति] नथी, [ते मुनयः] ते मुनिओ [अशुभेन] अशुभ [वा शुभेन] के शुभ [कर्मणा] कर्मथी [न लिप्यन्ते] लेपाता नथी.
टीकाः — आ जे त्रण प्रकारनां अध्यवसानो छे ते बधांय पोते अज्ञानादिरूप (अर्थात् अज्ञान, मिथ्यादर्शन अने अचारित्ररूप) होवाथी शुभाशुभ कर्मबंधनां निमित्त छे. ते विशेष समजाववामां आवे छेः — ‘हुं (पर जीवोने) हणुं छुं’ इत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते अध्यवसानवाळा जीवने, ज्ञानमयपणाने लीधे १सत्रूप २अहेतुक ३ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे एवा आत्मानो अने रागद्वेषना उदयमय एवी ४हनन आदि क्रियाओनो ५विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न
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१. सत्रूप = सत्तास्वरूप; अस्तित्वस्वरूप. (आत्मा ज्ञानमय छे तेथी सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ज तेनी एक क्रिया छे.)
२. अहेतुक = जेनुं कोई कारण नथी एवी; अकारण; स्वयंसिद्ध; सहज.
३. ज्ञप्ति = जाणवुं ते; जाणनक्रिया. (ज्ञप्तिक्रिया सत
४. हनन = हणवुं ते; हणवारूप क्रिया. (हणवुं वगेरे क्रियाओ रागद्वेषना उदयमय छे.)
५. विशेष = तफावत; भिन्न लक्षण.