कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य ।
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।।१७९।।
[आलोच्य] विचारीने, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः] परद्रव्य जेनुं मूळ छे एवी आ बहु भावोनी संततिने एकीसाथे उखेडी नाखवाने इच्छतो पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य] ते समस्त परद्रव्यने बळथी ( – उद्यमथी, पराक्रमथी) भिन्न करीने ( – त्यागीने), [निर्भरवहत्-पूर्ण-एक-संविद्-युतं आत्मानं] अतिशयपणे वहेतुं ( – धारावाही) जे पूर्ण एक संवेदन तेनाथी युक्त एवा पोताना आत्माने [समुपैति] पामे छे, [येन] के जेथी [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा] जेणे कर्मबंधनने मूळथी उखेडी नाख्युं छे एवो आ भगवान आत्मा [आत्मनि] पोतामां ज ( – आत्मामां ज) [स्फू र्जति] स्फुरायमान थाय छे.
भावार्थः — परद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं जाणी समस्त परद्रव्यने भिन्न करवामां – त्यागवामां आवे त्यारे समस्त रागादिभावोनी संतति कपाई जाय छे अने त्यारे आत्मा पोतानो ज अनुभव करतो थको कर्मना बंधनने कापी पोतामां ज प्रकाशे छे. माटे जे पोतानुं हित चाहे छे ते एवुं करो. १७८.
हवे बंध अधिकार पूर्ण करतां तेना अंतमंगळरूपे ज्ञानना महिमाना अर्थनुं कळशकाव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [कारणानां रागादीनाम् उदयं] बंधनां कारणरूप जे रागादिक (रागादिक- भावो) तेमना उदयने [अदयम्] निर्दय रीते (अर्थात् उग्र पुरुषार्थथी) [दारयत्] विदारती थकी, [कार्यं विविधम् बन्धं] ते रागादिकना कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकारना बंधने [अधुना] हमणां [सद्यः एव] तत्काळ ज [प्रणुद्य] दूर करीने, [एतत् ज्ञानज्योतिः] आ ज्ञानज्योति — [क्षपिततिमिरं] के जेणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे ते — [साधु] सारी रीते [सन्नद्धम्] सज्ज थई, — [तद्-वत् यद्-वत्] एवी रीते सज्ज थई के [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति] तेना फेलावने बीजुं कोई आवरी शके नहि.
भावार्थः — ज्यारे ज्ञान प्रगट थाय छे, रागादिक रहेता नथी, तेमनुं कार्य जे बंध ते पण रहेतो नथी, त्यारे पछी तेने ( – ज्ञानने) आवरण करनारुं कोई रहेतुं नथी, ते सदाय प्रकाशमान ज रहे छे. १७९.
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