आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणं मोक्षः । बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत्; न कर्मबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत् । एतेन कर्मबन्धप्रपञ्चरचनापरिज्ञानमात्रसन्तुष्टा उत्थाप्यन्ते ।
गाथार्थः — [यथा नाम] जेवी रीते [बन्धनके] बंधनमां [चिरकालप्रतिबद्धः] घणा काळथी बंधायेलो [कश्चित् पुरुषः] कोई पुरुष [तस्य] ते बंधनना [तीव्रमन्दस्वभावं] तीव्र-मंद (आकरा-ढीला) स्वभावने [कालं च] अने काळने (अर्थात् आ बंधन आटला काळथी छे एम) [विजानाति] जाणे छे, [यदि] परंतु जो [न अपि छेदं करोति] ते बंधनने पोते कापतो नथी [तेन न मुच्यते] तो तेनाथी छूटतो नथी [तु] अने [बन्धनवशः सन्] बंधनवश रहेतो थको [बहुकेन अपि कालेन] घणा काळे पण [सः नरः] ते पुरुष [विमोक्षम् न प्राप्नोति] बंधनथी छूटवारूप मोक्षने पामतो नथी; [इति] तेवी रीते जीव [कर्मंबन्धनानां] कर्म-बंधनोनां [प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम्] प्रदेश, स्थिति, प्रकृति तेम ज अनुभागने [जानन् अपि] जाणतां छतां पण [न मुच्यते] (कर्मबंधथी) छूटतो नथी, [च यदि सः एव शुद्धः] परंतु जो पोते (रागादिने दूर करी) शुद्ध थाय [मुच्यते] तो ज छूटे छे.
टीकाः — आत्मा अने बंधनुं द्विधाकरण (अर्थात् आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा) ते मोक्ष छे. ‘बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण छे (अर्थात् बंधना स्वरूपने जाणवामात्रथी ज मोक्ष थाय छे)’ एम केटलाक कहे छे, ते असत् छे; कर्मथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण नथी, केम के जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र बंधथी छूटवानुं कारण नथी तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र कर्मबंधथी छूटवानुं कारण नथी. आथी ( – आ कथनथी), जेओ कर्मबंधना प्रपंचनी ( – विस्तारनी) रचनाना ज्ञानमात्रथी संतुष्ट छे तेमने उत्थापवामां आवे छे.
भावार्थः — बंधनुं स्वरूप जाणवाथी ज मोक्ष छे एम कोई अन्यमती माने छे. तेमनी ए मान्यतानुं आ कथनथी निराकरण जाणवुं. जाणवामात्रथी ज बंध नथी कपातो, बंध तो कापवाथी ज कपाय छे.
बंधना विचार कर्या करवाथी पण बंध कपातो नथी एम हवे कहे छेः —
४२६