इह खलु पूर्वप्रक्रान्तेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावातिरिक्ता- त्मसंचेतनेन जितमोहस्य सतो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टम्भात्तत्सन्तानात्यन्तविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं व्याख्यानरूप करना और इस उपदेशसे अन्य भी विचार लेना ।
भावार्थ : — भावक मोहके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे अपना आत्मा भाव्यरूप होता है उसे भेदज्ञानके बलसे भिन्न अनुभव करनेवाला जितमोह जिन है । यहाँ ऐसा आशय है कि श्रेणी चढ़ते हुए जिसे मोहका उदय अनुभवमें न रहे और जो अपने बलसे उपशमादि करके आत्मानुभव करता है उसे जितमोह कहा है । यहाँ मोहको जीता है; उसका नाश नहीं हुआ ।।३२।।
परमार्थविज्ञायक पुरुष क्षीणमोह तब उनको कहे ।।३३।।
गाथार्थ : — [जितमोहस्य तु साधोः ] जिसने मोहको जीत लिया है ऐसे साधुके [यदा ] जब [क्षीणः मोहः ] मोह क्षीण होकर सत्तामेंसे नष्ट [भवेत् ] हाे [तदा ] तब [निश्चयविद्भिः ] निश्चयके जाननेवाले [खलु ] निश्चयसे [सः ] उस साधुको [क्षीणमोहः ] ‘क्षीणमोह’ नामसे [भण्यते ] कहते हैं ।
टीका : — इस निश्चयस्तुतिमें, पूर्वोक्त विधानसे आत्मामेंसे मोहका तिरस्कार करके, पूर्वोक्त ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यसे अधिक आत्माका अनुभव करनेसे जो जितमोह हुआ है, उसे जब अपने स्वभावभावकी भावनाका भलीभांति अवलम्बन करनेसे मोहकी संततिका ऐसा आत्यन्तिक विनाश हो कि फि र उसका उदय न हो — इसप्रकार भावकरूप मोह क्षीण हो, तब (भावक मोहका क्षय होनेसे आत्माके विभावरूप भाव्यभावका भी अभाव होता है, और