Samaysar (Hindi). Kalash: 27.

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परमात्मानमवाप्तः क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र-
चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि
(शार्दूलविक्रीडित)
एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चया-
न्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः
स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे-
न्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः
।।२७।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
इसप्रकार) भाव्यभावक भावका अभाव होनेसे एकत्व होनेसे टंकोत्कीर्ण (निश्चल) परमात्माको
प्राप्त हुआ वह ‘क्षीणमोह जिन’ कहलाता है
यह तीसरी निश्चयस्तुति है
यहाँ भी पूर्व कथनानुसार ‘मोह’ पदको बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ,
कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शइन पदोंको रखकर सोलह
सूत्रोंका व्याख्यान करना और इसप्रकारके उपदेशसे अन्य भी विचार लेना
भावार्थ :साधु पहले अपने बलसे उपशम भावके द्वारा मोहको जीतकर, फि र जब
अपनी महा सामर्थ्यसे मोहको सत्तामेंसे नष्ट करके ज्ञानस्वरूप परमात्माको प्राप्त होता है तब
वह क्षीणमोह जिन कहलाता है
।।३३।।
अब यहाँ इस निश्चय-व्यवहाररूप स्तुतिके अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं ] शरीर और आत्माके व्यवहारनयसे
एकत्व है, [तु पुनः ] किन्तु [ निश्चयात् न ] निश्चयनयसे नहीं है; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं
व्यवहारतः अस्ति ]
इसलिए शरीरके स्तवनसे आत्मा-पुरुषका स्तवन व्यवहारनयसे हुआ
कहलाता है, [तत्त्वतः तत् न ] निश्चयनयसे नहीं; [निश्चयतः ] निश्चयसे तो [चित्स्तुत्या एव ]
चैतन्यके स्तवनसे ही [चितः स्तोत्रं भवति ] चैतन्यका स्तवन होता है
[सा एवं भवेत् ] उस
चैतन्यका स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोहइत्यादिरूपसे कहा वैसा है [अतः
तीर्थकरस्तवोत्तरबलात् ] अज्ञानीने तीर्थंकरके स्तवनका जो प्रश्न किया था उसका इसप्रकार
नयविभागसे उत्तर दिया है; जिसके बलसे यह सिद्ध हुआ कि [आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न ]
आत्मा और शरीरमें निश्चयसे एकत्व नहीं है
।२७।