(मालिनी)
इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां
नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम् ।
अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य
स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फु टन्नेक एव ।।२८।।
इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः ।
एवमयमनादिमोहसन्ताननिरूपितात्मशरीरैकत्वसंस्कारतयात्यन्तमप्रतिबुद्धोऽपि प्रसभोज्जृम्भित-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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अब फि र, इस अर्थके जाननेसे भेदज्ञानकी सिद्धि होती है इस अर्थका सूचक काव्य
कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [परिचित-तत्त्वैः ] जिन्होंने वस्तुके यथार्थ स्वरूपको परिचयरूप किया
है ऐसे मुनियोंने [आत्म-काय-एकतायां ] जब आत्मा और शरीरके एकत्वको [इति नय-
विभजन-युक्त्या ] इसप्रकार नयविभागको युक्तिके द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम् ] जड़मूलसे
उखाड़ फें का है — उसका अत्यन्त निषेध किया है, तब अपने [स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फु टन्
एकः एव ] निजरसके वेगसे आकृष्ट हो प्रगट होनेवाले एक स्वरूप होकर [कस्य ] किस
पुरुषको वह [बोधः ] ज्ञान [अद्य एव ] तत्काल ही [बोधं ] यथार्थपनेको [न अवतरति ] प्राप्त
न होगा ? अवश्य ही होगा ।
भावार्थ : — निश्चयव्यवहारनयके विभागसे आत्मा और परका अत्यन्त भेद बताया है;
उसे जानकर, ऐसा कौन पुरुष है जिसे भेदज्ञान न हो ? होता ही है; क्योंकि जब ज्ञान अपने
स्वरससे स्वयं अपने स्वरूपको जानता है, तब अवश्य ही वह ज्ञान अपने आत्माको परसे भिन्न
ही बतलाता है । कोई दीर्घसंसारी ही हो तो उसकी यहाँ कोई बात नहीं है ।२८।
इसप्रकार, अप्रतिबुद्धने जो यह कहाँ था कि — ‘‘हमारा तो यह निश्चय है कि शरीर
ही आत्मा है’’, उसका निराकरण किया ।
इसप्रकार यह अज्ञानी जीव अनादिकालीन मोहके संतानसे निरूपित आत्मा और शरीरके
एकत्वके संस्कारसे अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था वह अब तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिका प्रगट उदय होनेसे
और नेत्रके विकारीकी भान्ति (जैसे किसी पुरुषकी आँखोंमें विकार था तब उसे वर्णादिक
अन्यथा दीखते थे और जब नेत्रविकार दूर हो गया तब वे ज्योंके त्यों — यथार्थ दिखाई देने
लगे, इसीप्रकार) पटल समान आवरणकर्मोंके भलीभान्ति उघड़ जानेसे प्रतिबुद्ध हो गया और