धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत् ।।३३।।
सर्व वस्तुओंको जाननेवाला यह ज्ञान है वह जीव-अजीवके सर्व स्वांगोंको भलीभान्ति पहिचानता है । ऐसा (सभी स्वांगोंको जाननेवाला) सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है — इस अर्थरूप काव्य क हते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ज्ञानं ] ज्ञान है वह [मनो ह्लादयत् ] मनको आनन्दरूप करता हुआ [विलसति ] प्रगट होता है । वह [पार्षदान् ] जीव-अजीवके स्वांगको देखनेवाले महापुरुषोंको [जीव-अजीव-विवेक-पुष्कल-दृशा ] जीव-अजीवके भेदको देखनेवाली अति उज्ज्वल निर्दोष दृष्टिके द्वारा [प्रत्याययत् ] भिन्न द्रव्यकी प्रतीति उत्पन्न कर रहा है । [आसंसार-निबद्ध-बन्धन -विधि-ध्वंसात् ] अनादि संसारसे जिनका बन्धन दृढ़ बन्धा हुआ है ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके नाशसे [विशुद्धं ] विशुद्ध हुआ है, [स्फु टत् ] स्फु ट हुआ है — जैसे फू लकी कली खिलती है उसीप्रकार विकासरूप है । और [आत्म-आरामम् ] उसका रमण करनेका क्रीड़ावन आत्मा ही है, अर्थात् उसमें अनन्त ज्ञेयोंके आकार आ कर झलकते हैं तथापि वह स्वयं अपने स्वरूपमें ही रमता है; [अनन्तधाम ] उसका प्रकाश अनन्त है; और वह [अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं ] प्रत्यक्ष तेजसे नित्य उदयरूप है । तथा वह [धीरोदात्तम् ] धीर है, उदात्त (उच्च) है और इसीलिए [अनाकुलं ] अनाकुल है — सर्व इच्छाओंसे रहित निराकुल है । (यहाँ धीर, उदात्त, अनाकुल — यह तीन