Samaysar (Hindi). Jiv-ajiv Adhikar Kalash: 33.

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अथ जीवाजीवावेकीभूतौ प्रविशतः
(शार्दूलविक्रीडित)
जीवाजीवविवेकपुष्कलद्रशा प्रत्याययत्पार्षदान
आसंसारनिबद्धबन्धनविधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फु टत
आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं
धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत
।।३३।।
- -
जीव - अजीव अधिकार
८६
अब जीवद्रव्य और अजीवद्रव्यवे दोनों एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं
इसके प्रारम्भमें मंगलके आशयसे (काव्य द्वारा) आचार्यदेव ज्ञानकी महिमा करते हैं कि
सर्व वस्तुओंको जाननेवाला यह ज्ञान है वह जीव-अजीवके सर्व स्वांगोंको भलीभान्ति पहिचानता
है
ऐसा (सभी स्वांगोंको जाननेवाला) सम्यग्ज्ञान प्रगट होता हैइस अर्थरूप काव्य क हते हैं :
श्लोकार्थ :[ज्ञानं ] ज्ञान है वह [मनो ह्लादयत् ] मनको आनन्दरूप करता हुआ
[विलसति ] प्रगट होता है वह [पार्षदान् ] जीव-अजीवके स्वांगको देखनेवाले महापुरुषोंको
[जीव-अजीव-विवेक-पुष्कल-दृशा ] जीव-अजीवके भेदको देखनेवाली अति उज्ज्वल निर्दोष
दृष्टिके द्वारा [प्रत्याययत् ] भिन्न द्रव्यकी प्रतीति उत्पन्न कर रहा है
[आसंसार-निबद्ध-बन्धन
-विधि-ध्वंसात् ] अनादि संसारसे जिनका बन्धन दृढ़ बन्धा हुआ है ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके
नाशसे [विशुद्धं ] विशुद्ध हुआ है, [स्फु टत् ] स्फु ट हुआ है
जैसे फू लकी कली खिलती है
उसीप्रकार विकासरूप है और [आत्म-आरामम् ] उसका रमण करनेका क्रीड़ावन आत्मा ही है,
अर्थात् उसमें अनन्त ज्ञेयोंके आकार आ कर झलकते हैं तथापि वह स्वयं अपने स्वरूपमें ही रमता
है; [अनन्तधाम ] उसका प्रकाश अनन्त है; और वह [अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं ] प्रत्यक्ष तेजसे
नित्य उदयरूप है
तथा वह [धीरोदात्तम् ] धीर है, उदात्त (उच्च) है और इसीलिए [अनाकुलं ]
अनाकुल हैसर्व इच्छाओंसे रहित निराकुल है
(यहाँ धीर, उदात्त, अनाकुलयह तीन