अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई ।
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति ।।३९।।
अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं ।
मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति ।।४०।।
कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति ।
तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो ।।४१।।
जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति ।
अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति ।।४२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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विशेषण शान्तरूप नृत्यके आभूषण जानना ।) ऐसा ज्ञान विलास करता है ।
भावार्थ : — यह ज्ञानकी महिमा कही । जीव-अजीव एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते
हैं उन्हें यह ज्ञान ही भिन्न जानता है । जैसे नृत्यमें कोई स्वांग धरकर आये और उसे जो यथार्थरूपमें
जान ले (पहिचान ले) तो वह स्वांगकर्ता उसे नमस्कार करके अपने रूपको जैसा का तैसा ही
कर लेता है उसीप्रकार यहाँ भी समझना । ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको होता है; मिथ्यादृष्टि इस
भेदको नहीं जानते ।३३।
अब जीव-अजीवका एकरूप वर्णन करते हैं : —
को मूढ़, आत्म-अजान जो, पर-आत्मवादी जीव है,
‘है कर्म, अध्यवसान ही जीव’ यों हि वो कथनी करे ।।३९।।
अरु कोई अध्यवसानमें अनुभाग तीक्षण-मन्द जो,
उसको ही माने आतमा, अरु अन्य को नोकर्मको ! ।।४०।।
को अन्य माने आतमा बस कर्मके ही उदयको,
को तीव्रमन्दगुणों सहित कर्मोंहिके अनुभागको ! ।।४१।।
को कर्म-आत्मा उभय मिलकर जीवकी आशा धरे,
को कर्मके संयोगसे अभिलाष आत्माकी करें ।।४२।।