Samaysar (Hindi).

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पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यः कटुकः कषायः तिक्तोऽम्लो मधुरो वा रसः
स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यः स्निग्धो
रूक्षः शीतः उष्णो गुरुर्लघुर्मृदुः कठिनो वा स्पर्शः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य,
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यत्स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति
जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यदौदारिकं वैक्रियिकमाहारकं तैजसं
कार्मणं वा शरीरं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
सत्समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं स्वाति कुब्जं वामनं हुण्डं वा संस्थानं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य,
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यद्वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचमर्धनाराचं
कीलिका असम्प्राप्तासृपाटिका वा संहननं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
यत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् योऽप्रीतिरूपो द्वेषः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य
१०६
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
और दुर्गन्ध है वह सर्व ही जीवकी नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है
जो कडुवा, कषायला, चरपरा, खट्टा और मीठा रस है वह सर्व ही जीवका
नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है जो
चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, भारी, हलका, कोमल अथवा कठोर स्पर्श है वह सर्व ही जीवका
नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
जो
स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप है वह जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
जो औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण
शरीर है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है
जो समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुण्डक
संस्थान है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है
जो वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका अथवा
असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
जो प्रीतिरूप राग है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि
वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है जो अप्रीतिरूप द्वेष है
वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे
भिन्न है
१० जो यथार्थतत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं