पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः कटुकः कषायः तिक्तोऽम्लो मधुरो वा रसः
स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः स्निग्धो
रूक्षः शीतः उष्णो गुरुर्लघुर्मृदुः कठिनो वा स्पर्शः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य,
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यत्स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति
जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यदौदारिकं वैक्रियिकमाहारकं तैजसं
कार्मणं वा शरीरं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ।
सत्समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं स्वाति कुब्जं वामनं हुण्डं वा संस्थानं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य,
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यद्वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचमर्धनाराचं
कीलिका असम्प्राप्तासृपाटिका वा संहननं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
यत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । योऽप्रीतिरूपो द्वेषः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
और दुर्गन्ध है वह सर्व ही जीवकी नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है । २ । जो कडुवा, कषायला, चरपरा, खट्टा और मीठा रस है वह सर्व ही जीवका
नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ३ । जो
चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, भारी, हलका, कोमल अथवा कठोर स्पर्श है वह सर्व ही जीवका
नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ४ । जो
स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप है वह जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ५ । जो औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण
शरीर है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है । ६ । जो समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुण्डक
संस्थान है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है । ७ । जो वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका अथवा
असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ८ । जो प्रीतिरूप राग है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि
वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ९ । जो अप्रीतिरूप द्वेष है
वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे
भिन्न है । १० । जो यथार्थतत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं