पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । ये मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्ययास्ते
सर्वेऽपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यद् ज्ञानावरणीय-
दर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायरूपं कर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गल-
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि
नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः शक्तिसमूहलक्षणो वर्गः स
सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । या वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा
सा सर्वापि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि
मन्दतीव्ररसकर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गल-
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि स्वपरैकत्वाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामाति-
रिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि तानि सर्वाण्यपि
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ११ । मिथ्यात्व,
अविरति, कषाय और योग जिसके लक्षण हैं ऐसे जो प्रत्यय (आस्रव) वे सर्व ही जीवके नहीं
हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १२ । जो
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप कर्म है वह सर्व
ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है । १३ । जो छह पर्याप्तियोग और तीन शरीरयोग्य वस्तु ( — पुद्गलस्कंध)रूप नोकर्म है वह
सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है । १४ । जो कर्मके रसकी शक्तियोंका (अर्थात् अविभाग-परिच्छेदोंका) समूहरूप वर्ग है वह
सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है । १५ । जो वर्गोंका समूहरूप वर्गणा है वह सर्व ही जीवका नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके
परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १६ । जो मन्दतीव्ररसवाले कर्मसमूहके विशिष्ट
न्यास ( – जमाव)रूप (वर्गणाके समूहरूप) स्पर्धक हैं वह सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह
पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १७ । स्व-परके एकत्वका
अध्यास (निश्चय) हो तब (वर्तनेवाले), विशुद्ध चैतन्यपरिणामसे भिन्नरूप जिनका लक्षण है ऐसे
जो अध्यात्मस्थान हैं वह सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे
(अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १८ । भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके रसके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे
जो अनुभागस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे