कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
१०९
विपाकक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्य-
परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-
परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-
चतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिपंचेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य,
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्या-
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्या-
दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणोपशमकक्षपकानिवृत्तिबादरसांप-
रायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपकोपशांतकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलि-
लक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ।
रायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपकोपशांतकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलि-
लक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ।
(शालिनी)
वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।३७।।
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।३७।।
क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २७ । पर्याप्त एवं
अपर्याप्त ऐसे बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय
जिनके लक्षण हैं ऐसे जो जीवस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके
परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २८ । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि,
जिनके लक्षण हैं ऐसे जो जीवस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके
परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २८ । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि,
सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण —
उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादरसांपराय — उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय — उपशमक
तथा क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली जिनका लक्षण हैं ऐसे
जो गुणस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न हैं । २९ । (इसप्रकार ये समस्त ही पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं; वे सब,
जो गुणस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न हैं । २९ । (इसप्रकार ये समस्त ही पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं; वे सब,
जीवके नहीं हैं । जीव तो परमार्थसे चैतन्यशक्तिमात्र है ।)।।५० से ५५।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [वर्ण-आद्याः ] जो वर्णादिक [वा ] अथवा [राग-मोह-आदयः वा ] रागमोहादिक [भावाः ] भाव कहे [सर्वे एव ] वे सब ही [अस्य पुंसः ] इस पुरुष (आत्मा)से [भिन्नाः ] भिन्न हैं, [तेन एव ] इसलिये [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः ] अन्तर्दृष्टिसे देखनेवालेको [अमी नो दृष्टाः स्युः ] यह सब दिखाई नहीं देते, [एकं परं दृष्टं स्यात् ] मात्र एक सर्वोपरि तत्त्व ही दिखाई