ननु वर्णादयो यद्यमी न सन्ति जीवस्य तदा तन्त्रान्तरे कथं सन्तीति प्रज्ञाप्यन्ते इति
चेत् —
ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया ।
गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ।।५६।।
व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवन्ति वर्णाद्याः ।
गुणस्थानान्ता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य ।।५६।।
इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्ध-
बन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कार्पासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
देता है — केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दिखाई देता है ।
भावार्थ : — परमार्थनय अभेद ही है, इसलिये इस दृष्टिसे देखने पर भेद नहीं दिखाई देता;
इस नयकी दृष्टिमें पुरुष चैतन्यमात्र ही दिखाई देता है । इसलिये वे समस्त ही वर्णादिक तथा
रागादिक भाव पुरुषसे भिन्न ही हैं ।
ये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव हैं उनका स्वरूप विशेषरूपसे जानना हो तो
गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंसे जान लेना ।३७।
अब शिष्य पूछता है कि — यदि यह वर्णादिक भाव जीवके नहीं हैैं तो अन्य
सिद्धान्तग्रन्थोंमें ऐसा कैसे कहा गया है कि ‘वे जीवके हैं’ ? उसका उत्तर गाथामें कहते हैं : —
वर्णादि गुणस्थानान्त भाव जु जीवके व्यवहारसे,
पर कोई भी ये भाव नहिं हैं जीवके निश्चयविषैं ।।५६।।
गाथार्थ : — [एते ] यह [वर्णाद्याः गुणस्थानान्ताः भावाः ] वर्णसे लेकर गुणस्थानपर्यन्त
जो भाव कहे गये वे [व्यवहारेण तु ] व्यवहारनयसे तो [जीवस्य भवन्ति ] जीवके हैं (इसलिये
सूत्रमें कहे गये हैं), [तु ] किन्तु [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके मतमें [केचित् न ] उनमेंसे कोई
भी जीवके नहीं हैं ।
टीका : — यहाँ, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होनेसे, सफे द रूईसे बना हुआ वस्त्र जो कि
कुसुम्बी (लाल) रङ्गसे रंगा हुआ है ऐसे वस्त्रके औपाधिक भाव ( – लाल रङ्ग)की भांति,
पुद्गलके संयोगवश अनादि कालसे जिसकी बन्धपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीवके औपाधिक भाव