परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति । ततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति,
यथा खलु सलिलमिश्रितस्य क्षीरस्य सलिलेन सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतक्षीरत्वगुणव्याप्यतया सलिलादधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह ( – वर्णादिक)का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, (वह व्यवहारनय) दूसरेके भावको दूसरेका कहता है; और निश्चयनय द्रव्याश्रित होनेसे, केवल एक जीवके स्वाभाविक भावका अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरेके भावको किंचित्मात्र भी दूसरेका नहीं कहता, निषेध करता है । इसलिये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव हैं वे व्यवहारनयसे जीवके हैं और निश्चयनयसे जीवके नहीं हैं ऐसा (भगवानका स्याद्वादयुक्त) कथन योग्य है ।।५६।।
अब फि र शिष्य प्रश्न पूछता है कि वर्णादिक निश्चयसे जीवके क्यों नहीं हैं इसका कारण कहिये । इसका उत्तर गाथारूपसे कहते हैं : —
गाथार्थ : — [एतैः च सम्बन्धः ] इन वर्णादिक भावोंके साथ जीवका सम्बन्ध [क्षीरोदकं यथा एव ] दूध और पानीका एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग सम्बन्ध है ऐसा [ज्ञातव्यः ] जानना [च ] और [तानि ] वे [तस्य तु न भवन्ति ] उस जीवके नहीं हैं, [यस्मात् ] क्योंकि जीव [उपयोगगुणाधिकः ] उनसे उपयोगगुणसे अधिक है ( – वह उपयोग गुणके द्वारा भिन्न ज्ञात होता है) ।
टीका : — जैसे — जलमिश्रित दूधका, जलके साथ परस्पर अवगाहस्वरूप सम्बन्ध होने पर भी, स्वलक्षणभूत दुग्धत्व-गुणके द्वारा व्याप्त होनेसे दूध जलसे अधिकपनेसे प्रतीत होता है;