तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् न निश्चयेन सलिलमस्ति, तथा वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रित-
स्यास्यात्मनः पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोग-
गुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धा-
भावात् न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः सन्ति ।
कथं तर्हि व्यवहारोऽविरोधक इति चेत् —
पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी ।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ।।५८।।
तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं ।
जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ।।५९।।
गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य ।
सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ।।६०।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
इसलिये, जैसा अग्निका उष्णताके साथ तादात्म्यस्वरूप सम्बन्ध है वैसा जलके साथ दूधका
सम्बन्ध न होनेसे, निश्चयसे जल दूधका नहीं है; इसप्रकार — वर्णादिक पुद्गलद्रव्यके परिणामोंके
साथ मिश्रित इस आत्माका, पुद्गलद्रव्यके साथ परस्पर अवगाहस्वरूप सम्बन्ध होने पर भी,
स्वलक्षणभूत उपयोगगुणके द्वारा व्याप्त होनेसे आत्मा सर्व द्रव्योंसे अधिकपनेसे प्रतीत होता है;
इसलिये, जैसा अग्निका उष्णताके साथ तादात्म्यस्वरूप सम्बन्ध है वैसा वर्णादिके साथ आत्माका
सम्बन्ध नहीं है इसलिये, निश्चयसे वर्णादिक पुद्गलपरिणाम आत्माके नहीं हैं ।।५७।।
अब यहाँ प्रश्न होता है कि इसप्रकार तो व्यवहारनय और निश्चयनयका विरोध आता है,
अविरोध कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर दृष्टान्त द्वारा तीन गाथाओंमें कहते हैं : —
देखा लुटाते पंथमें को, ‘पंथ यह लुटात है’ —
जनगण कहे व्यवहारसे, नहिं पंथ को लुटात है ।।५८।।
त्यों वर्ण देखा जीवमें इन कर्म अरु नोकर्मका,
जिनवर कहे व्यवहारसे ‘यह वर्ण है इस जीवका’ ।।५९।।
त्यों गंध, रस, रूप, स्पर्श, तन, संस्थान इत्यादिक सबैं,
भूतार्थद्रष्टा पुरुषने व्यवहारनयसे वर्णये ।।६०।।