तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितंकर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण
इति व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य
जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति
व्यवहारीजन [भणन्ति ] कहते हैं; किन्तु परमार्थसे विचार किया जाये तो [कश्चित् पन्था ] कोई
मार्ग तो [न च मुष्यते ] नहीं लुटता, मार्गमें जाता हुआ मनुष्य ही लुटता है; [तथा ] इसप्रकार
[जीवे ] जीवमें [कर्मणां नोकर्मणां च ] कर्मोंका और नोकर्मोंका [वर्णम् ] वर्ण [दृष्टवा ] देखकर
‘[जीवस्य ] जीवका [एषः वर्णः ] यह वर्ण है’ इसप्रकार [जिनैः ] जिनेन्द्रदेवने [व्यवहारतः ]
व्यवहारसे [उक्त : ] कहा है
[निश्चयद्रष्टारः ] निश्चयके देखनेवाले [व्यपदिशन्ति ] कहते हैं
हैं, तथापि निश्चयसे देखा जाये तो, जो आकाशके अमुक भागस्वरूप है ऐसा कोई मार्ग तो
नहीं लुटता; इसीप्रकार भगवान अरहन्तदेव, जीवमें बन्धपर्यायसे स्थितिको प्राप्त (रहा हुआ)
कर्म और नोकर्मका वर्ण देखकर, (कर्म-नोकर्मके) वर्णकी (बन्धपर्यायसे) जीवमें स्थिति
होनेसे उसका उपचार करके, ‘जीवका यह वर्ण है ऐसा व्यवहारसे प्रगट करते हैं, तथापि
निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुणके द्वारा अन्यद्रव्योंसे अधिक