यथा पथि प्रस्थितं कञ्चित्सार्थं मुष्यमाणमवलोक्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण मुष्यत एष पन्था इति व्यवहारिणां व्यपदेशेऽपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पन्था मुष्यते, तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितंकर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति । एवं गन्धरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म-
गाथार्थ : — [पथि मुष्यमाणं ] जैसे मार्गमें जाते हुये व्यक्तिको लुटता हुआ [दृष्टवा ] देखकर ‘[एषः पन्था ] यह मार्ग [मुष्यते ] लुटता है’ इसप्रकार [व्यवहारिणः लोकाः ] व्यवहारीजन [भणन्ति ] कहते हैं; किन्तु परमार्थसे विचार किया जाये तो [कश्चित् पन्था ] कोई मार्ग तो [न च मुष्यते ] नहीं लुटता, मार्गमें जाता हुआ मनुष्य ही लुटता है; [तथा ] इसप्रकार [जीवे ] जीवमें [कर्मणां नोकर्मणां च ] कर्मोंका और नोकर्मोंका [वर्णम् ] वर्ण [दृष्टवा ] देखकर ‘[जीवस्य ] जीवका [एषः वर्णः ] यह वर्ण है’ इसप्रकार [जिनैः ] जिनेन्द्रदेवने [व्यवहारतः ] व्यवहारसे [उक्त : ] कहा है । इसीप्रकार [गन्धरसस्पर्शरूपाणि ] गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, [देहः संस्थानादयः ] देह, संस्थान आदि [ये च सर्वे ] जो सब हैं, [व्यवहारस्य ] वे सब व्यवहारसे [निश्चयद्रष्टारः ] निश्चयके देखनेवाले [व्यपदिशन्ति ] कहते हैं ।
टीका : — जैसे व्यवहारी जन, मार्गमें जाते हुए किसी सार्थ(संघ)को लुटता हुआ देखकर, संघकी मार्गमें स्थिति होनेसे उसका उपचार करके, ‘यह मार्ग लुटता है’ ऐसा कहते हैं, तथापि निश्चयसे देखा जाये तो, जो आकाशके अमुक भागस्वरूप है ऐसा कोई मार्ग तो नहीं लुटता; इसीप्रकार भगवान अरहन्तदेव, जीवमें बन्धपर्यायसे स्थितिको प्राप्त (रहा हुआ) कर्म और नोकर्मका वर्ण देखकर, (कर्म-नोकर्मके) वर्णकी (बन्धपर्यायसे) जीवमें स्थिति होनेसे उसका उपचार करके, ‘जीवका यह वर्ण है ऐसा व्यवहारसे प्रगट करते हैं, तथापि निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुणके द्वारा अन्यद्रव्योंसे अधिक