जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वा-
भावाज्जीव एव । अपस्माररयवद्वर्धमानहीयमानत्वादध्रुवाः खल्वास्रवाः, ध्रुवश्चिन्मात्रो जीव
एव । शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृम्भमाणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनस्वभावो
जीव एव । बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवत्त्रातुमशक्यत्वादशरणाः खल्वास्रवाः,
सशरणः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवाकुलस्वभावत्वाद्दुःखानि खल्वास्रवाः,
अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव । आयत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य
हेतुत्वाद्दुःखफलाः खल्वास्रवाः, अदुःखफलः सकलस्यापि पुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीव
एव । इति विकल्पानन्तरमेव शिथिलितकर्मविपाको विघटितघनौघघटनो दिगाभोग इव
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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अध्रुव हैं, [अनित्याः ] अनित्य हैं [तथा च ] तथा [अशरणाः ] अशरण हैं, [च ] और वे
[दुःखानि ] दुःखरूप हैं, [दुःखफलाः ] दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं, — [इति ज्ञात्वा ] ऐसा
जानकर ज्ञानी [तेभ्यः ] उनसे [निवर्तते ] निवृत्त होता है ।
टीका : — वृक्ष और लाखकी भाँति वध्य-घातकस्वभावपना होनेसे आस्रव जीवके
साथ बँधे हुए हैं; किन्तु अविरुद्धस्वभावत्वका अभाव होनेसे वे जीव ही नहीं हैं । [लाखके
निमित्तसे पीपल आदि वृक्षका नाश होता है । लाख घातक है और वृक्ष वध्य (घात होने
योग्य) है । इसप्रकार लाख और वृक्षका स्वभाव एक-दूसरेसे विरुद्ध है, इसलिये लाख
वृक्षके साथ मात्र बंधी हुई ही है; लाख स्वयं वृक्ष नहीं है । इसीप्रकार आस्रव घातक हैं
और आत्मा वध्य है । इसप्रकार विरुद्ध स्वभाव होनेसे आस्रव स्वयं जीव नहीं है । ] आस्रव
मृगीके वेगकी भाँति बढ़ते-घटते होनेसे अध्रुव हैं; चैतन्यमात्र जीव ही ध्रुव है । आस्रव
शीतदाहज्वरके आवेशकी भाँति अनुक्रमसे उत्पन्न होते हैं इसलिए अनित्य हैं; विज्ञानघन
जिसका स्वभाव है ऐसा जीव ही नित्य है । जैसे कामसेवनमें वीर्य छूट जाता है उसी क्षण
दारुण संस्कार नष्ट हो जाता है, किसीसे नहीं रोका जा सकता, इसीप्रकार कर्मोदय छूट जाता
है उसी क्षण आस्रव नाशको प्राप्त हो जाते हैं, रोके नहीं जा सकते, इसलिये वे (आस्रव)
अशरण हैं; स्वयंरक्षित सहजचित्शक्तिरूप जीव ही शरणसहित है । आस्रव सदा ही आकुल
स्वभाववाले होनेसे दुःखरूप हैं; सदा ही निराकुल स्वभाववाला जीव ही अदुःखरूप अर्थात्
सुखरूप है । आस्रव आगामी कालमें आकुलताको उत्पन्न करनेवाले ऐसे पुद्गलपरिणामके
हेतु होनेसे दुःखफलरूप (दुःख जिसका फल है ऐसे) हैं; जीव ही समस्त पुद्गलपरिणामका
अहेतु होनेसे अदुःखफल (दुःखफलरूप नहीं) है । — ऐसा आस्रवोंका और जीवका भेदज्ञान
होते ही (तत्काल ही) जिसमें कर्मविपाक शिथिल हो गया है ऐसा वह आत्मा, जिसमें