निरर्गलप्रसरः सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा
तथास्रवेभ्यो निवर्तते, यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ।
तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत् सम्यगास्रवेभ्यो निवर्तते, तावदास्रवेभ्यश्च निवर्तते
यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वम् ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
बादलसमूहकी रचना खण्डित हो गई है ऐसे दिशाके विस्तारकी भाँति अमर्याद जिसका
विस्तार है ऐसा, सहजरूपसे विकासको प्राप्त चित्शक्तिसे ज्यों-ज्यों विज्ञानघनस्वभाव होता
जाता है त्यों-त्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है, और ज्यों-ज्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता
है त्यों-त्यों विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है; उतना विज्ञानघनस्वभाव होता है जितना सम्यक्
प्रकारसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है, और उतना आस्रवोंसे निवृत्त होता है जितना
सम्यक् प्रकारसे विज्ञानघनस्वभाव होता है । इसप्रकार ज्ञानको और आस्रवोंकी निवृत्तिको
समकालपना है ।
भावार्थ : — आस्रवोंका और आत्माका जैसा ऊ पर कहा है तदनुसार भेद जानते ही,
जिस-जिस प्रकारसे जितने-जितने अंशमें आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता है उस-उस प्रकारसे
उतने-उतने अंशमें वह आस्रवोंसे निवृत्त होता है । जब सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभाव होता है तब
समस्त आस्रवोंसे निवृत्त होता है । इसप्रकार ज्ञानका और आस्रवनिवृत्तिका एक काल है ।
यह आस्रवोंको दूर होनेका और संवर होनेका वर्णन गुणस्थानोंकी परिपाटीरूपसे
तत्त्वार्थसूत्रकी टीका आदि सिद्धान्तशास्त्रोंमें है वहाँसे जानना । यहाँ तो सामान्य प्रकरण है,
इसलिये सामान्यतया कहा है ।
‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है’ इसका क्या अर्थ है ? उसका उत्तर : —
‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है अर्थात् आत्मा ज्ञानमें स्थित होता जाता है ।’ जब
तक मिथ्यात्व हो तब तक ज्ञानको (भले ही वह क्षायोपशमिक ज्ञान अधिक हो तो भी)
अज्ञान कहा जाता है और मिथ्यात्वके जानेके बाद उसे (भले ही वह क्षायोपशमिक ज्ञान
अल्प हो तो भी) विज्ञान कहा जाता है । ज्यों-ज्यों वह ज्ञान अर्थात् विज्ञान स्थिर-घन होता
जाता है त्यों-त्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती जाती है और ज्यों-ज्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती
जाती है त्यों-त्यों ज्ञान (विज्ञान) स्थिर-घन होता जाता है, अर्थात् आत्मा विज्ञानघनस्वभाव
होता जाता है ।।७४।।
अब इसी अर्थका कलशरूप तथा आगेके कथनका सूचक काव्य कहते
हैं : —