यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगात् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषंगान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ । योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः कर्ताकर्मभाव अथवा परिणाम-परिणामीभाव एक द्रव्यमें ही हो सकता है । इसीप्रकार यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप हो जाये, तो उस द्रव्यका ही नाश हो जाये यह बड़ा दोष आ जायेगा । इसलिये एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यका कर्ता कहना उचित नहीं है ।।९९।।
अब यह कहते हैं कि आत्मा (व्याप्यव्यापकभावसे ही नहीं किन्तु ) निमित्त- नैमित्तिकभावसे भी कर्ता नहीं है : —
गाथार्थ : — [जीवः ] जीव [घटं ] घटको [न करोति ] नहीं करता, [पटं न एव ] पटको नहीं करता, [शेषकानि ] शेष कोई [द्रव्याणि ] द्रव्योंको [न एव ] नहीं करता; [च ] परन्तु [योगोपयोगौ ] जीवके योग और उपयोग [उत्पादकौ ] घटादिको उत्पन्न करनेवाले निमित्त हैं [तयोः ] उनका [कर्ता ] कर्ता [भवति ] जीव होता है ।
टीका : — वास्तवमें जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप कर्म है उसको यह आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे तो नहीं करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयताका प्रसंग आ जाये; तथा वह निमित्त-नैमित्तिकभावसे भी उसको नहीं करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो नित्यकर्तृत्वका (सर्व अवस्थाओंमें कर्तृत्व होनेका) प्रसंग आ जायेगा । अनित्य (जो सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त नहीं होते ऐसे) योग और उपयोग ही निमित्तरूपसे उसके ( – परद्रव्यस्वरूप कर्मके) कर्ता हैं । (रागादिविकारयुक्त चैतन्यपरिणामरूप) अपने विकल्पको और (आत्मप्रदेशोंके चलनरूप) अपने