ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसव्याप्तदधिदुग्धमधुराम्लपरिणामवत्पुद्गलद्रव्यव्याप्तत्वेन
भवन्तो ज्ञानावरणानि भवन्ति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इव न नाम करोति ज्ञानी, किन्तु यथा
स गोरसाध्यक्षस्तद्दर्शनमात्मव्याप्तत्वेन प्रभवद्वयाप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणामनिमित्तं
ज्ञानमात्मव्याप्यत्वेन प्रभवद्वयाप्य जानात्येव । एवं ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात् ।
एवमेव च ज्ञानावरणपदपरिवर्तनेन कर्मसूत्रस्य विभागेनोपन्यासाद्दर्शनावरणवेदनीय-
मोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायसूत्रैः सप्तभिः सह मोहरागद्वेषक्रोधमानमायालोभनोकर्ममनोवचनकाय-
श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
अज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात् —
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता ।
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ।।१०२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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टीका : — जैसे दूध-दही जो कि गोरसके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले गोरसके
मीठे-खट्टे परिणाम हैं, उन्हें गोरसका तटस्थ दृष्टा पुरुष करता नहीं है, इसीप्रकार ज्ञानावरणादिक
जो कि वास्तवमें पुद्गलद्रव्यके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, उन्हें
ज्ञानी करता नहीं हैं; किन्तु जैसे वह गोरसका दृष्टा, स्वतः (देखनेवालेसे) व्याप्त होकर उत्पन्न
होनेवाले गोरस-परिणामके दर्शनमें व्याप्त होकर, मात्र देखता ही है, इसीप्रकार ज्ञानी, स्वतः
(ज्ञानीसे) व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले, पुद्गलद्रव्य-परिणाम जिसका निमित्त है ऐसे ज्ञानमें व्याप्त
होकर, मात्र जानता ही है । इसप्रकार ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है ।
और इसीप्रकार ‘ज्ञानावरण’ पद पलटकर कर्म-सूत्रका (कर्मकी गाथाका)विभाग करके
कथन करनेसे दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके सात सूत्र तथा
उनके साथ मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु,
घ्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करना; और इस उपदेशसे अन्य भी विचार
लेना ।।१०१।।
अब यह कहते हैं कि अज्ञानी भी परद्रव्यके भावका कर्ता नहीं है : —
जो भाव जीव करे शुभाशुभ उसहिका कर्ता बने ।
उसका बने वह कर्म, आत्मा उसहिका वेदक बने ।।१०२।।