यं भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता ।
तत्तस्य भवति कर्म स तस्य तु वेदक आत्मा ।।१०२।।
इह खल्वनादेरज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेन पुद्गलकर्मविपाकदशाभ्यां मन्दतीव्रस्वादाभ्याम-
चलितविज्ञानघनैकस्वादस्याप्यात्मनः स्वादं भिन्दानः शुभमशुभं वा यो यं भावमज्ञानरूपमात्मा
करोति स आत्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य व्यापकत्वाद्भवति कर्ता, स भावोऽपि च तदा
तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद्भवति कर्म; स एव चात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य
भावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वाद्भवत्यनुभाव्यः ।
एवमज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात् ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
गाथार्थ : — [आत्मा ] आत्मा [यं ] जिस [शुभम् अशुभम् ] शुभ या अशुभ [भावं ]
(अपने) भावको [करोति ] करता है [तस्य ] उस भावका [सः ] वह [खलु ] वास्तवमें
[कर्ता ] कर्ता होता है, [तत् ] वह (भाव) [तस्य ] उसका [कर्म ] कर्म [भवति ] होता है
[सः आत्मा तु ] और वह आत्मा [तस्य ] उसका (उस भावरूप कर्मका) [वेदकः ] भोक्ता
होता है ।
टीका : — अपना अचलित विज्ञानघनस्वरूप एक स्वाद होने पर भी इस लोकमें जो
यह आत्मा अनादिकालीन अज्ञानके कारण परके और अपने एकत्वके अध्याससे मन्द और तीव्र
स्वादयुक्त पुद्गलकर्मके विपाककी दो दशाओंके द्वारा अपने (विज्ञानघनस्वरूप) स्वादको भेदता
हुआ अज्ञानरूप शुभ या अशुभ भावको करता है, वह आत्मा उस समय तन्मयतासे उस भावका
व्यापक होनेसे उसका कर्ता होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे उस आत्माका
व्याप्य होनेसे उसका कर्म होता है; और वही आत्मा उस समय तन्मयतासे उस भावका भावक
होनेसे उसका अनुभव करनेवाला (भोक्ता) होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे
उस आत्माका भाव्य होनेसे उसका अनुभाव्य (भोग्य) होता है । इसप्रकार अज्ञानी भी परभावका
कर्ता नहीं है ।
भावार्थ : — पुद्गलकर्मका उदय होने पर, ज्ञानी उसे जानता ही है अर्थात् वह ज्ञानका
ही कर्ता होता है और अज्ञानी अज्ञानके कारण कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले अपने अज्ञानरूप
शुभाशुभ भावोंका कर्ता होता है । इसप्रकार ज्ञानी अपने ज्ञानरूप भावका और अज्ञानी अपने
अज्ञानरूप भावका कर्ता है; परभावका कर्ता तो ज्ञानी अथवा अज्ञानी कोई भी नहीं है ।।१०२।।