इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिंश्चिच्चिदात्मन्यचिदात्मनि वा द्रव्ये गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः, स खल्वचलितस्य वस्तुस्थितिसीम्नो भेत्तुमशक्यत्वात्त- स्मिन्नेव वर्तेत, न पुनः द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा संक्रामेत । द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वाऽसंक्रामंश्च कथं त्वन्यं वस्तुविशेषं परिणामयेत् ? अतः परभावः केनापि न कर्तुं पार्येत ।
गाथार्थ : — [यः ] जो वस्तु (अर्थात् द्रव्य) [यस्मिन् द्रव्ये ] जिस द्रव्यमें और [गुणे ] गुणमें वर्तती है [सः ] वह [अन्यस्मिन् तु ] अन्य [द्रव्ये ] द्रव्यमें तथा गुणमें [न संक्रामति ] संक्रमणको प्राप्त नहीं होती (बदलकर अन्यमें नहीं मिल जाती); [अन्यत् असंक्रान्तः ] अन्यरूपसे संक्रमणको प्राप्त न होती हुई [सः ] वह (वस्तु), [तत् द्रव्यम् ] अन्य वस्तुको [कथं ] कैसे [परिणामयति ] परिणमन करा सकती है ?
टीका : — जगत्में जो कोई जितनी वस्तु जिस किसी जितने चैतन्यस्वरूप या अचैतन्यस्वरूप द्रव्यमें और गुणमें निज रससे ही अनादिसे ही वर्तती है वह, वास्तवमें अचलित वस्तुस्थितिकी मर्यादाको तोड़ना अशक्य होनेसे, उसीमें (अपने उतने द्रव्य-गुणमें ही) वर्तती है, परन्तु द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप संक्रमणको प्राप्त नहीं होती; और द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप संक्रमणको प्राप्त न होती हुई वह, अन्य वस्तुको कैसे परिणमित करा सकती है ? (कभी नहीं करा सकती ।) इसलिये परभाव किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता ।
भावार्थ : — जो द्रव्यस्वभाव है उसे कोई भी नहीं बदल सकता, यह वस्तुकी मर्यादा है ।।१०३।।