कर्मतामापद्यमानस्य कर्तृत्वमापद्येत । स तु ज्ञानिनः सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्म-
ख्यातित्वात् ज्ञानमय एव स्यात् । अज्ञानिनः तु सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमित-
विविक्तात्मख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात् ।
किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह —
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि ।
णाणमओ णाणिस्स दु ण कुणदि तम्हा दु कम्माणि ।।१२७।।
अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि ।
ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि ।।१२७।।
अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मादज्ञानमय
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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भावको करता है उस भावका ही — कर्मत्वको प्राप्त हुएका ही — कर्ता वह होता है (अर्थात् वह
भाव आत्माका कर्म है और आत्मा उसका कर्ता है) । वह भाव ज्ञानीको ज्ञानमय ही है, क्योंकि
उसे सम्यक् प्रकारसे स्व-परके विवेकसे (सर्व परद्रव्यभावोंसे) भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त
उदयको प्राप्त हुई है । और वह भाव अज्ञानीको तो अज्ञानमय ही है, क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे
स्व-परका विवेक न होनेसे भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त अस्त हो गई है ।
भावार्थ : — ज्ञानीको तो स्व-परका भेदज्ञान हुआ है, इसलिये उसके अपने ज्ञानमय
भावका ही कर्तृत्व है; और अज्ञानीको स्व-परका भेदज्ञान नहीं है, इसलिये उसके अज्ञानमय
भावका ही कर्तृत्व है ।।१२६।।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानमय भावसे क्या होता है और अज्ञानमय भावसे क्या होता है : —
अज्ञानमय अज्ञानिका, जिससे करे वह कर्मको ।
पर ज्ञानमय है ज्ञानिका, जिससे करे नहिं कर्मको ।।१२७।।
गाथार्थ : — [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [अज्ञानमयः ] अज्ञानमय [भावः ] भाव है, [तेन ]
इसलिये अज्ञानी [कर्माणि ] क र्मोंको [करोति ] क रता है, [ज्ञानिनः तु ] और ज्ञानीके तो
[ज्ञानमयः ] ज्ञानमय (भाव) है, [तस्मात् तु ] इसलिये ज्ञानी [कर्माणि ] क र्मोंको [न करोति ]
नहीं क रता ।
टीका : — अज्ञानीके, सम्यक् प्रकारसे स्व-परका विवेक न होनेके कारण भिन्न