अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मादज्ञानमय भावको करता है उस भावका ही — कर्मत्वको प्राप्त हुएका ही — कर्ता वह होता है (अर्थात् वह भाव आत्माका कर्म है और आत्मा उसका कर्ता है) । वह भाव ज्ञानीको ज्ञानमय ही है, क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे स्व-परके विवेकसे (सर्व परद्रव्यभावोंसे) भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त उदयको प्राप्त हुई है । और वह भाव अज्ञानीको तो अज्ञानमय ही है, क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे स्व-परका विवेक न होनेसे भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त अस्त हो गई है ।
भावार्थ : — ज्ञानीको तो स्व-परका भेदज्ञान हुआ है, इसलिये उसके अपने ज्ञानमय भावका ही कर्तृत्व है; और अज्ञानीको स्व-परका भेदज्ञान नहीं है, इसलिये उसके अज्ञानमय भावका ही कर्तृत्व है ।।१२६।।
गाथार्थ : — [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [अज्ञानमयः ] अज्ञानमय [भावः ] भाव है, [तेन ] इसलिये अज्ञानी [कर्माणि ] क र्मोंको [करोति ] क रता है, [ज्ञानिनः तु ] और ज्ञानीके तो [ज्ञानमयः ] ज्ञानमय (भाव) है, [तस्मात् तु ] इसलिये ज्ञानी [कर्माणि ] क र्मोंको [न करोति ] नहीं क रता ।