Samaysar (Hindi).

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
एव भावः स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोरेकत्वाध्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभ्रष्टः पराभ्यां
रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिताहंकारः स्वयं किलैषोऽहं रज्ये रुष्यामीति रज्यते रुष्यति च;
तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि

ज्ञानिनस्तु सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मात् ज्ञानमय एव भावः स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोर्नानात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव, न रज्यते, न च रुष्यति, तस्मात् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि आत्माकी ख्याति अत्यन्त अस्त हो गई होनेसे, अज्ञानमय भाव ही होता है, और उसके होनेसे, स्व-परके एकत्वके अध्यासके कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमेंसे (आत्मस्वरूपमेंसे) भ्रष्ट हुआ, पर ऐसे रागद्वेषके साथ एक होकर जिसके अहंकार प्रवर्त रहा है ऐसा स्वयं ‘यह मैं वास्तवमें रागी हूँ, द्वेषी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ, द्वेष करता हूँ )’ इसप्रकार (मानता हुआ) रागी और द्वेषी होता है; इसलिये अज्ञानमय भावके कारण अज्ञानी अपनेको पर ऐसे रागद्वेषरूप करता हुआ कर्मोंको करता है

ज्ञानीके तो, सम्यक् प्रकारसे स्वपरविवेकके द्वारा भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त उदयको प्राप्त हुई होनेसे, ज्ञानमय भाव ही होता है, और उसके होनेसे, स्व-परके भिन्नत्वके विज्ञानके कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमें सुनिविष्ट (सम्यक् प्रकारसे स्थित) हुआ, पर ऐसे रागद्वेषसे पृथग्भूतताके (भिन्नत्वके) कारण निजरससे ही जिसके अहंकार निवृत्त हुआ है ऐसा स्वयं वास्तवमें मात्र जानता ही है, रागी और द्वेषी नहीं होता (अर्थात् रागद्वेष नहीं करता); इसलिये ज्ञानमय भावके कारण ज्ञानी अपनेको पर ऐसे रागद्वेषरूप न करता हुआ कर्मोंको नहीं करता

भावार्थ :इस आत्माके क्रोधादिक मोहनीय कर्मकी प्रकृतिका (अर्थात् रागद्वेषका) उदय आने पर, अपने उपयोगमें उसका रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आता है अज्ञानीके स्व-परका भेदज्ञान न होनेसे वह यह मानता है कि ‘‘यह रागद्वेषरूप मलिन उपयोग ही मेरा स्वरूप है वही मैं हूँ’’ इसप्रकार रागद्वेषमें अहंबुद्धि करता हुआ अज्ञानी अपनेको रागीद्वेषी करता है; इसलिये वह कर्मोंको करता है इसप्रकार अज्ञानमय भावसे कर्मबन्ध होता है

ज्ञानीके भेदज्ञान होनेसे वह ऐसा जानता है कि ‘‘ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग है वही मेरा स्वरूप हैवही मैं हूँ; रागद्वेष कर्मोंका रस है, वह मेरा स्वरूप नहीं है’’ इसप्रकार रागद्वेषमें अहंबुद्धि न करता हुआ ज्ञानी अपनेको रागीद्वेषी नहीं करता, केवल ज्ञाता ही रहता है; इसलिये