वह कर्मोंको नहीं करता । इसप्रकार ज्ञानमय भावसे कर्मबन्ध नहीं होता ।।१२७।।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत् ] यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानीको ज्ञानमय भाव ही क्यों होता है [पुनः ] और [अन्यः न ] अन्य (अज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होता ? [अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः ] तथा अज्ञानीके सभी भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं तथा [अन्यः न ] अन्य (ज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होते ? ।६६।
गाथार्थ : — [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानमयात् भावात् च ] ज्ञानमय भावमेंसे [ज्ञानमयः एव ] ज्ञानमय ही [भावः ] भाव [जायते ] उत्पन्न होता है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [सर्वे भावाः ] समस्त भाव [खलु ] वास्तवमें [ज्ञानमयाः ] ज्ञानमय ही होते हैं । [च ] और, [यस्मात् ] क्योंकि [अज्ञानमयात् भावात् ] अज्ञानमय भावमेंसे [अज्ञानः एव ] अज्ञानमय ही