(आर्या)
ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेत् ज्ञानिनो न पुनरन्यः ।
अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ।।६६।।
णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो ।
जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया ।।१२८।।
अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो ।
जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ।।१२९।।
ज्ञानमयाद्भावात् ज्ञानमयश्चैव जायते भावः ।
यस्मात्तस्माज्ज्ञानिनः सर्वे भावाः खलु ज्ञानमयाः ।।१२८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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वह कर्मोंको नहीं करता । इसप्रकार ज्ञानमय भावसे कर्मबन्ध नहीं होता ।।१२७।।
अब आगेकी गाथाके अर्थका सूचक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत् ] यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानीको
ज्ञानमय भाव ही क्यों होता है [पुनः ] और [अन्यः न ] अन्य (अज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होता ?
[अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः ] तथा अज्ञानीके सभी भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं
तथा [अन्यः न ] अन्य (ज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होते ? ।६६।
इसी प्रश्नके उत्तररूप गाथा कहते हैं : —
ज्यों ज्ञानमय को भावमेंसे ज्ञानभाव हि उपजते ।
यों नियत ज्ञानीजीवके सब भाव ज्ञानमयी बने ।।१२८।।
अज्ञानमय को भावसे अज्ञानभाव हि ऊपजे ।
इस हेतुसे अज्ञानिके अज्ञानमय भाव हि बने ।।१२९।।
गाथार्थ : — [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानमयात् भावात् च ] ज्ञानमय भावमेंसे [ज्ञानमयः
एव ] ज्ञानमय ही [भावः ] भाव [जायते ] उत्पन्न होता है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके
[सर्वे भावाः ] समस्त भाव [खलु ] वास्तवमें [ज्ञानमयाः ] ज्ञानमय ही होते हैं । [च ] और,
[यस्मात् ] क्योंकि [अज्ञानमयात् भावात् ] अज्ञानमय भावमेंसे [अज्ञानः एव ] अज्ञानमय ही