यतो ह्यज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽप्यज्ञानमयत्वमनति- वर्तमानोऽज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एवाज्ञानमया अज्ञानिनो भावाः । यतश्च ज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽपि ज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानो ज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एव ज्ञानमया ज्ञानिनो भावाः ।
अथैतदेव दृष्टान्तेन समर्थयते — [भावः ] भाव [जायते ] उत्पन्न होता है, [तस्मात् ] इसलिये [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [भावाः ] भाव [अज्ञानमयाः ] अज्ञानमय ही होते हैं ।
टीका : — वास्तवमें अज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भाव होता है वह सब ही अज्ञानमयताका उल्लंघन न करता हुआ अज्ञानमय ही होता है, इसलिये अज्ञानीके सभी भाव अज्ञानमय होते हैं । और ज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भी भाव होता है वह सब ही ज्ञानमयताका उल्लंघन न करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इसलिये ज्ञानीके सभी भाव ज्ञानमय होते हैं ।
भावार्थ : — ज्ञानीका परिणमन अज्ञानीके परिणमनसे भिन्न ही प्रकारका है । अज्ञानीका परिणमन अज्ञानमय और ज्ञानीका ज्ञानमय है; इसलिये अज्ञानीके क्रोध, मान, व्रत, तप इत्यादि समस्त भाव अज्ञानजातिका उल्लंघन न करनेसे अज्ञानमय ही हैं और ज्ञानीके समस्त भाव ज्ञानजातिका उल्लंघन न करनेसे ज्ञानमय ही हैं ।।१२८-१२९।।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [सर्वे भावाः ] समस्त भाव [ज्ञाननिर्वृत्ताः हि ] ज्ञानसे रचित [भवन्ति ] होते हैं [तु ] और [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [सर्वे अपि ते ] समस्त भाव [अज्ञाननिर्वृत्ताः ] अज्ञानसे रचित [भवन्ति ] होते हैं ।६७।