यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वात् कार्याणां, जाम्बूनदमयाद्भावाज्जाम्बूनदजातिमनतिवर्तमाना जाम्बूनदकुण्डलादय एव भावा
पर लोहमय को भावसे कटकादि भावों नीपजे; ।।१३०।।
पर ज्ञानिके तो सर्व भावहि ज्ञानमय निश्चय बने ।।१३१।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [कनकमयात् भावात् ] स्वर्णमय भावमेंसे [कुण्डलादयः भावाः ] स्वर्णमय कुण्डल इत्यादिे भाव [जायन्ते ] होते हैं [तु ] और [अयोमयकात् भावात् ] लोहमय भावमेंसे [कटकादयः ] लोहमय क ड़ा इत्यादिे भाव [जायन्ते ] होते हैं, [तथा ] उसीप्रकार [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके (अज्ञानमय भावमेंसे) [बहुविधाः अपि ] अनेक प्रकारके [अज्ञानमयाः भावाः ] अज्ञानमय भाव [जायन्ते ] होते हैं [तु ] और [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके (ज्ञानमय भावमेंसे) [सर्वे ] सभी [ज्ञानमयाः भावाः ] ज्ञानमय भाव [भवन्ति ] होते हैं
टीका : — जैसे पुद्गल स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी, कारण जैसे कार्य होनेसे, सुवर्णमय भावमेंसे सुवर्णजातिका उल्लंघन न करते हुए सुवर्णमय कुण्डल आदि भाव ही होते हैं, किन्तु लौहमय कड़ा इत्यादि भाव नहीं होते, और लौहमय भावमेंसे, लौहजातिका उल्लंघन न करते हुए लौहमय कड़ा इत्यादि भाव ही होते हैं, किन्तु सुवर्णमय कुण्डल आदि भाव नहीं होते; इसीप्रकार जीव स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी, कारण जैसे ही कार्य होनेसे, अज्ञानीके — जो