भवेयुः, न पुनः कालायसवलयादयः, कालायसमयाद्भावाच्च कालायसजातिमनतिवर्तमानाः
कालायसवलयादय एव भवेयुः, न पुनर्जाम्बूनदकुण्डलादयः; तथा जीवस्य स्वयं परिणाम-
स्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां, अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भावादज्ञान-
जातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनर्ज्ञानमयाः, ज्ञानिनश्च
स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमानाः सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न
पुनरज्ञानमयाः ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
कि स्वयं अज्ञानमय भाव है उसके — अज्ञानमय भावमेंसे, अज्ञानजातिका उल्लंघन न करते हुए
अनेक प्रकारके अज्ञानमय भाव ही होते हैं; किन्तु ज्ञानमय भाव नहीं होते, तथा ज्ञानीके — जो कि
स्वयं ज्ञानमय भाव हैं उसके — ज्ञानमय भावमेंसे, ज्ञानकी जातिका उल्लंघन न करते हुए समस्त
ज्ञानमय भाव ही होते हैं; किन्तु अज्ञानमय भाव नहीं होते ।
भावार्थ : — ‘जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है’ इस न्यायसे जैसे लोहेमेंसे
लौहमय कड़ा इत्यादि वस्तुएँ होती हैं और सुवर्णमेंसे सुवर्णमय आभूषण होते हैं, इसी प्रकार अज्ञानी
स्वयं अज्ञानमय भाव होनेसे उसके (अज्ञानमय भावमेंसे) अज्ञानमय भाव ही होते हैं और ज्ञानी
स्वयं ज्ञानमय भाव होनेसे उसके (ज्ञानमय भावमेंसे) ज्ञानमय भाव ही होते हैं ।
अज्ञानीके शुभाशुभ भावोंमें आत्मबुद्धि होनेसे उसके समस्त भाव अज्ञानमय ही हैं ।
अविरत सम्यग्दृष्टि ( – ज्ञानी)के यद्यपि चारित्रमोहके उदय होने पर क्रोधादिक भाव प्रवर्तते
हैं तथापि उसके उन भावोंमें आत्मबुद्धि नहीं हैं, वह उन्हें परके निमित्तसे उत्पन्न उपाधि मानता
है । उसके क्रोधादिक कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं — वह भविष्यका ऐसा बन्ध नहीं करता
कि जिससे संसारपरिभ्रमण बढ़े; क्योंकि (ज्ञानी) स्वयं उद्यमी होकर क्रोधादिभावरूप परिणमता
नहीं है, और यद्यपि उदयकी १बलवत्तासे परिणमता है तथापि ज्ञातृत्वका उल्लंघन करके परिणमता
नहीं है; ज्ञानीका स्वामित्व निरन्तर ज्ञानमें ही वर्तता है, इसलिये वह क्रोधादिभावोंका अन्य ज्ञेयोंकी
भाँति ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं । इसप्रकार ज्ञानीके समस्त भाव ज्ञानमय ही हैं ।।१३०-१३१।।
१ सम्यग्दृष्टिकी रुचि सर्वदा शुद्धात्मद्रव्यके प्रति ही होती है; उनकी कभी रागद्वेषादि भावोंकी रुचि नहीं होती ।
उसको जो रागद्वेषादि भाव होते हैं वे भाव, यद्यपि उसकी स्वयंकी निर्बलतासे ही एवं उसके स्वयंके अपराधसे
ही होते हैं, फि र भी वे रुचिपूर्वक नहीं होते इस कारण उन भावोंको ‘कर्मकी बलवत्तासे होनेवाले भाव’
कहनेमें आते हैं । इससे ऐसा नहीं समझना कि ‘जड़ द्रव्यकर्म आत्माके ऊ पर लेशमात्र भी जोर कर सकता
है’, परन्तु ऐसा समझना कि ‘विकारी भावोंके होने पर भी सम्यग्दृष्टि महात्माकी शुद्धात्मद्रव्यरुचिमें किंचित्
भी कमी नहीं है, मात्र चारित्रादि सम्बन्धी निर्बलता है — ऐसा आशय बतलानेके लिये ऐसा कहा है ।’ जहाँ
जहाँ ‘कर्मकी बलवत्ता’, ‘कर्मकी जबरदस्ती’, ‘कर्मका जोर’ इत्यादि कथन हो वहाँ वहाँ ऐसा आशय समझना ।