(अनुष्टुभ्)
अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाम् ।
द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ।।६८।।
अण्णाणस्स स उदओ जा जीवाणं अतच्चउवलद्धी ।
मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असद्दहाणत्तं ।।१३२।।
उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेइ अविरमणं ।
जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ ।।१३३।।
तं जाण जोगउदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो ।
सोहणमसोहणं वा कायव्वो विरदिभावो वा ।।१३४।।
एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु ।
परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं ।।१३५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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अब आगेकी गाथाका सूचक अर्थरूप श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अज्ञानी ] अज्ञानी [अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाम् ] (अपने) अज्ञानमय
भावोंकी भूमिकामें [व्याप्य ] व्याप्त होकर [द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम् ] (आगामी) द्रव्यक र्मके
निमित्त जो (अज्ञानादि) भाव उनके [हेतुताम् एति ] हेतुत्वको प्राप्त होता है (अर्थात् द्रव्यक र्मके
निमित्तरूप भावोंका हेतु बनता है) ।६८।
इसी अर्थको पाँच गाथाओं द्वारा कहते हैं : —
जो तत्त्वका अज्ञान जीवके, उदय वह अज्ञानका ।
अप्रतीत तत्त्वकी जीवके जो, उदय वह मिथ्यात्वका ।।१३२।।
जीवका जु अविरतभाव है, वह उदय अनसंयम हि का ।
जीवका कलुष उपयोग जो, वह उदय जान कषायका ।।१३३।।
शुभ अशुभ वर्तन या निवर्तन रूप जो चेष्टा हि का ।
उत्साह बरते जीवके वह उदय जानो योगका ।।१३४।।
जब होय हेतुभूत ये तब स्कन्ध जो कार्माणके ।
वे अष्टविध ज्ञानावरणइत्यादिभावों परिणमे ।।१३५।।