तत्खलु जीवनिबद्धं कार्मणवर्गणागतं यदा ।
तदा तु भवति हेतुर्जीवः परिणामभावानाम् ।।१३६।।
अतत्त्वोपलब्धिरूपेण ज्ञाने स्वदमानोऽज्ञानोदयः । मिथ्यात्वासंयमकषाययोगोदयाः
कर्महेतवस्तन्मयाश्चत्वारो भावाः । तत्त्वाश्रद्धानरूपेण ज्ञाने स्वदमानो मिथ्यात्वोदयः, अविरमणरूपेण
ज्ञाने स्वदमानोऽसंयमोदयः, कलुषोपयोगरूपेण ज्ञाने स्वदमानः कषायोदयः, शुभाशुभप्रवृत्ति-
निवृत्तिव्यापाररूपेण ज्ञाने स्वदमानो योगोदयः । अथैतेषु पौद्गलिकेषु मिथ्यात्वाद्युदयेषु हेतुभूतेषु
यत्पुद्गलद्रव्यं कर्मवर्गणागतं ज्ञानावरणादिभावैरष्टधा स्वयमेव परिणमते तत्खलु कर्मवर्गणागतं
जीवनिबद्धं यदा स्यात्तदा जीवः स्वयमेवाज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेनाज्ञानमयानां तत्त्वाश्रद्धानादीनां
स्वस्य परिणामभावानां हेतुर्भवति ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
२११
जीव [परिणामभावानाम् ] (अपने अज्ञानमय) परिणामभावोंका [हेतुः ] हेतु [भवति ] होता है ।
टीका : — तत्त्वके अज्ञानरूपसे (वस्तुस्वरूपकी अन्यथा उपलब्धिरूपसे) ज्ञानमें
स्वादरूप होता हुआ अज्ञानका उदय है । मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके उदय — जो कि
(नवीन) कर्मोंके हेतु हैं — वे अज्ञानमय चार भाव हैं । तत्त्वके अश्रद्धानरूपसे ज्ञानमें स्वादरूप
होता हुआ मिथ्यात्वका उदय है; अविरमणरूपसे (अत्यागभावरूपसे) ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ
असंयमका उदय है; कलुष (मलिन) उपयोगरूप ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ कषायका उदय है;
शुभाशुभ प्रवृत्ति या निवृत्तिके व्यापाररूपसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ योगका उदय है । ये
पौद्गलिक मिथ्यात्वादिके उदय हेतुभूत होने पर जो कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य
ज्ञानावरणादिभावसे आठ प्रकार स्वयमेव परिणमता है, वह कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब जीवमें
निबद्ध होवे तब जीव स्वयमेव अज्ञानसे स्व-परके एकत्वके अध्यासके कारण तत्त्व-अश्रद्धान
आदि अपने अज्ञानमय परिणामभावोंका हेतु होता है ।
भावार्थ : — अज्ञानभावके भेदरूप मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगके उदय
पुद्गलके परिणाम हैं और उनका स्वाद अतत्त्वश्रद्धानादिरूपसे ज्ञानमें आता है । वे उदय निमित्तभूत
होने पर, कार्मणवर्गणारूप नवीन पुद्गल स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमते हैं और जीवके
साथ बँधते हैं; और उस समय जीव भी स्वयमेव अपने अज्ञानभावसे अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप
परिणमता है और इसप्रकार अपने अज्ञानमय भावोंका कारण स्वयं ही होता है ।
मिथ्यात्वादिका उदय होना, नवीन पुद्गलोंका कर्मरूप परिणमना तथा बँधना, और जीवका
अपने अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप परिणमना — यह तीनों ही एक समयमें होते हैं; सब स्वतंत्रतया
अपने आप ही परिणमते हैं, कोई किसीका परिणमन नहीं कराता ।।१३२ से १३६।।