(उपजाति) एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७८।।
(उपजाति) एकस्य कार्यं न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७९।।
(उपजाति) एकस्य भावो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८०।।
श्लोकार्थ : — [हेतुः ] जीव हेतु (कारण) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव हेतु (कारण) नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७८।
श्लोकार्थ : — [कार्यं ] जीव कार्य है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव कार्य नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७९।