यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो व्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोक्षहेतुः स सर्वोऽपि प्रतिषिद्धः, तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभवनात्, परमार्थमोक्ष- हेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात् । ही है — ऐसा कहनेमें कुछ भी विरोध नहीं है । इसलिये कई स्थानों पर आचार्यदेवने टीकामें ज्ञानस्वरूप आत्माको ‘ज्ञान’ शब्दसे कहा है ।।१५५।।
गाथार्थ : — [निश्चयार्थं ] निश्चयनयके विषयको [मुक्त्वा ] छोड़कर [विद्वांसः ] विद्वान् [व्यवहारेण ] व्यवहारके द्वारा [प्रवर्तन्ते ] प्रवर्तते हैं; [तु ] परन्तु [परमार्थम् आश्रितानां ] परमार्थके ( – आत्मस्वरूपके) आश्रित [यतीनां ] यतीश्वरोंके ही [क र्मक्षयः ] क र्मका नाश [विहितः ] आगममें क हा गया है । (के वल व्यवहारमें प्रवर्तन करनेवाले पंडितोंके क र्मक्षय नहीं होता ।)
टीका : — कुछ लोग परमार्थ मोक्षहेतुसे अन्य, जो व्रत, तप इत्यादि शुभकर्मस्वरूप मोक्षहेतु मानते हैं, उस समस्तहीका निषेध किया गया है; क्योंकि वह (मोक्षहेतु) अन्य द्रव्यके स्वभाववाला (पुद्गलस्वभाववाला) है, इसलिये उसके स्व-भावसे ज्ञानका भवन (होना) नहीं बनता, — मात्र परमार्थ मोक्षहेतु ही एक द्रव्यके स्वभाववाला (जीवस्वभाववाला) है, इसलिये उसके स्वभावके द्वारा ज्ञानका भवन (होना) बनता है ।
भावार्थ : — मोक्ष आत्माका होता है, इसलिये उसका कारण भी आत्मस्वभावी ही होना चाहिये । जो अन्य द्रव्यके स्वभाववाला है उससे आत्माका मोक्ष कैसे हो सकता है ? शुभ कर्म पुद्गलस्वभावी है, इसलिये उसके भवनसे परमार्थ आत्माका भवन नहीं बन सकता; इसलिये वह