यतः स्वयमेव ज्ञानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराध- प्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बन्धावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेव- मवतिष्ठते; ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बन्धः । अतः स्वयं बन्धत्वात् कर्म प्रतिषिद्धम् ।
गाथार्थ : — [सः ] वह आत्मा [सर्वज्ञानदर्शी ] (स्वभावसे) सर्वको जानने – देखनेवाला है तथापि [निजेन क र्मरजसा ] अपने क र्ममलसे [अवच्छन्नः ] लिप्त होता हुआ – व्याप्त होता हुआ [संसारसमापन्नः ] संसारको प्राप्त हुआ वह [सर्वतः ] सर्व प्रकारसे [सर्वम् ] सर्वको [न विजानाति ] नहीं जानता ।
टीका : — जो स्वयं ही ज्ञान होनेके कारण विश्वको ( – सर्वपदार्थोंको) सामान्यविशेषतया जाननेके स्वभाववाला है ऐसा ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादि कालसे अपने पुरुषार्थके अपराधसे प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही, बन्ध-अवस्थामें सर्व प्रकारसे सम्पूर्ण अपनेको अर्थात् सर्व प्रकारसे सर्व ज्ञेयोंको जाननेवाले अपनेको न जानता हुआ, इसप्रकार प्रत्यक्ष अज्ञानभावसे ( – अज्ञानदशामें) रह रहा है; इससे यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है । इसलिये, स्वयं बन्धस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है ।
भावार्थ : — यहाँ भी ‘ज्ञान’ शब्दसे आत्मा समझना चाहिये । ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य स्वभावसे तो सबको देखने – जाननेवाला है, परन्तु अनादिसे स्वयं अपराधी होनेके कारण कर्मसे आच्छादित है, और इसलिये वह अपने सम्पूर्ण स्वरूपको नहीं जानता; यों अज्ञानदशामें रह रहा है । इसप्रकार केवलज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्मसे लिप्त होनेसे अज्ञानरूप अथवा बद्धरूप वर्तता है, इसलिये यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है । अतः कर्मका निषेध किया गया है ।।१६०।।