सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो ।
संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ।।१६०।।
स सर्वज्ञानदर्शी कर्मरजसा निजेनावच्छन्नः ।
संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वतः सर्वम् ।।१६०।।
यतः स्वयमेव ज्ञानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराध-
प्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बन्धावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेव-
मवतिष्ठते; ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बन्धः । अतः स्वयं बन्धत्वात् कर्म प्रतिषिद्धम् ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
यह सर्वज्ञानी-दर्शि भी, निज कर्मरज-आच्छादसे ।
संसारप्राप्त न जानता वह सर्वको सब रीतिसे ।।१६०।।
गाथार्थ : — [सः ] वह आत्मा [सर्वज्ञानदर्शी ] (स्वभावसे) सर्वको जानने – देखनेवाला
है तथापि [निजेन क र्मरजसा ] अपने क र्ममलसे [अवच्छन्नः ] लिप्त होता हुआ – व्याप्त होता
हुआ [संसारसमापन्नः ] संसारको प्राप्त हुआ वह [सर्वतः ] सर्व प्रकारसे [सर्वम् ] सर्वको
[न विजानाति ] नहीं जानता ।
टीका : — जो स्वयं ही ज्ञान होनेके कारण विश्वको ( – सर्वपदार्थोंको) सामान्यविशेषतया
जाननेके स्वभाववाला है ऐसा ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादि कालसे अपने पुरुषार्थके अपराधसे
प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही, बन्ध-अवस्थामें सर्व प्रकारसे सम्पूर्ण अपनेको
अर्थात् सर्व प्रकारसे सर्व ज्ञेयोंको जाननेवाले अपनेको न जानता हुआ, इसप्रकार प्रत्यक्ष
अज्ञानभावसे ( – अज्ञानदशामें) रह रहा है; इससे यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप
है । इसलिये, स्वयं बन्धस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है ।
भावार्थ : — यहाँ भी ‘ज्ञान’ शब्दसे आत्मा समझना चाहिये । ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य
स्वभावसे तो सबको देखने – जाननेवाला है, परन्तु अनादिसे स्वयं अपराधी होनेके कारण कर्मसे
आच्छादित है, और इसलिये वह अपने सम्पूर्ण स्वरूपको नहीं जानता; यों अज्ञानदशामें रह रहा
है । इसप्रकार केवलज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्मसे लिप्त होनेसे अज्ञानरूप अथवा
बद्धरूप वर्तता है, इसलिये यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है । अतः कर्मका निषेध
किया गया है ।।१६०।।