च्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात् ।
तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ।।१२९।।
संवर होनेके क्रममें संवरका पहला ही कारण भेदविज्ञान कहा है उसकी भावनाके उपदेशका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एषः साक्षात् संवरः ] यह साक्षात् (सर्व प्रकारसे) संवर [कि ल ] वास्तवमें [शुद्ध-आत्म-तत्त्वस्य उपलम्भात् ] शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिसे [सम्पद्यते ] होता है; और [सः ] वह शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धि [भेदविज्ञानतः एव ] भेदविज्ञानसे ही होती है । [तस्मात् ] इसलिये [तत् भेदविज्ञानम् ] वह भेदविज्ञान [अतीव ] अत्यंत [भाव्यम् ] भाने योग्य है ।
भावार्थ : — जब जीवको भेदविज्ञान होता है अर्थात् जब जीव आत्मा और कर्मको यथार्थतया भिन्न जानता है तब वह शुद्ध आत्माका अनुभव करता है, शुद्ध आत्माके अनुभवसे आस्रवभाव रुकता है और अनुक्रमसे सर्व प्रकारसे संवर होता है । इसलिये भेदविज्ञानको अत्यन्त भानेका उपदेश किया है ।१२९।
श्लोकार्थ : — [इदम् भेदविज्ञानम् ] यह भेदविज्ञान [अच्छिन्न-धारया ] अच्छिन्न-धारासे (जिसमें विच्छेद न पडे़ ऐसे अखण्ड प्रवाहरूपसे) [तावत् ] तब तक [भावयेत् ] भाना चाहिये [यावत् ] जब तक [परात् च्युत्वा ] परभावोंसे छूटकर [ज्ञानं ] ज्ञान [ज्ञाने ] ज्ञानमें ही (अपने स्वरूपमें ही) [प्रतिष्ठते ] स्थिर हो जाये ।
भावार्थ : — यहाँ ज्ञानका ज्ञानमें स्थिर होना दो प्रकारसे जानना चाहिये । एक तो, मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और फि र मिथ्यात्व न आये तब ज्ञान ज्ञानमें स्थिर हुआ कहलाता है; दूसरे, जब ज्ञान शुद्धोपयोगरूपसे स्थिर हो जाये और फि र अन्यविकाररूप परिणमित न हो तब वह ज्ञानमें स्थिर हुआ कहलाता है । जब तक ज्ञान दोनों प्रकारसे ज्ञानमें स्थिर न हो जाये तब तक भेदविज्ञानको भाते रहना चाहिये ।१३०।