(अनुष्टुभ्)
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।१३१।।
(मन्दाक्रान्ता)
भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्भा–
द्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण ।
बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं
ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ।।१३२।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
अब पुनः भेदविज्ञानकी महिमा बतलाते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ये केचन किल सिद्धाः ] जो कोई सिद्ध हुए हैं [भेदविज्ञानतः सिद्धाः ]
वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं; और [ये केचन किल बद्धाः ] जो कोई बँधे हैं [अस्य एव अभावतः
बद्धाः ] वे उसीके ( – भेदविज्ञानके ही) अभावसे बँधे हैं ।
भावार्थ : — अनादिकालसे लेकर जब तक जीवको भेदविज्ञान नहीं हो तब तक वह
कर्मसे बँधता ही रहता है — संसारमें परिभ्रमण ही करता रहता है; जिस जीवको भेदविज्ञान होता
है वह कर्मोंसे छूट जाता है — मोक्षको प्राप्त कर ही लेता है । इसलिये कर्मबन्धका – संसारका –
मूल भेदविज्ञानका अभाव ही है और मोक्षका प्रथम कारण भेदविज्ञान ही है । भेदविज्ञानके बिना
कोई सिद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता ।
यहाँ ऐसा भी समझना चाहिये कि — विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध और वेदान्ती जो कि वस्तुको
अद्वैत कहते हैं और अद्वैतके अनुभवसे ही सिद्धि कहते हैं उनका, भेदविज्ञानसे ही सिद्धि कहनेसे,
निषेध हो गया; क्योंकि वस्तुका स्वरूप सर्वथा अद्वैत न होने पर भी जो सर्वथा अद्वैत मानते हैं
उनके किसी भी प्रकारसे भेदविज्ञान कहा ही नहीं जा सकता; जहाँ द्वैत (दो वस्तुएँ) ही नहीं मानते
वहाँ भेदविज्ञान कैसा ? यदि जीव और अजीव — दो वस्तुएँ मानी जाये और उनका संयोग माना
जाये तभी भेदविज्ञान हो सकता है, और सिद्धि हो सकती है । इसलिये स्याद्वादियोंको ही सब कु छ
निर्बाधतया सिद्ध होता है ।१३१।
अब, संवर अधिकार पूर्ण करते हुए, संवर होनेसे जो ज्ञान हुआ उस ज्ञानकी महिमाका
काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [भेदज्ञान-उच्छलन-क लनात् ] भेदज्ञान प्रगट क रनेके अभ्याससे