[शुद्धतत्त्वउपलम्भात् ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि हुई, शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धिसे [रागग्रामप्रलयकरणात् ] राग-समूहका विलय हुआ, राग-समूहके विलय क रनेसे [कर्मणां संवरेण ] क र्मोंका संवर हुआ और क र्मोंका संवर होनेसे, [ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं ] ज्ञानमें ही निश्चल हुआ ऐसा यह ज्ञान उदयको प्राप्त हुआ — [बिभ्रत् परमम् तोषं ] कि जो ज्ञान परम संतोषको (परम अतीन्द्रिय आनंदको) धारण क रता है, [अमल-आलोकम् ] जिसका प्रकाश निर्मल है (अर्थात् रागादिक के कारण मलिनता थी वह अब नहीं है), [अम्लानम् ] जो अम्लान है (अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञानकी भाँति कुम्हलाया हुआ – निर्बल नहीं है, सर्व लोकालोक के जाननेवाला है), [एकं ] जो एक है (अर्थात् क्षयोपशमसे जो भेद थे वह अब नहीं है) और [शाश्वत-उद्योतम् ] जिसका उद्योेत शाश्वत है (अर्थात् जिसका प्रकाश अविनश्वर है)।१३२।
करके बाहर निकल गया ।
राग-द्वेष-विमोह सबहि गलि जाय, इमै दुठ कर्म रुकाही;
उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातममाहीं,
यों मुनिराज भली विधि धारत, केवल पाय सुखी शिव जाहीं ।।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्चदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें संवरका प्ररूपक पाँचवाँ अंक समाप्त हुआ ।