Samaysar (Hindi). NirjarA adhikar Kalash: 133.

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निर्जरा अधिकार
अथ प्रविशति निर्जरा।
(शार्दूलविक्रीडित)
रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः
कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः
प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा
ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति
।।१३३।।
(दोहा)
रागादिककूं रोध करि, नवे बंध हति संत
पूर्व उदयमें सम रहे, नमूं निर्जरावंत ।।

प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि ‘‘अब निर्जरा प्रवेश करती है’’ यहाँ तत्त्वोंका नृत्य है; अतः जैसे नृत्यमंच पर नृत्य करनेवाला स्वाँग धारण कर प्रवेश करता है उसीप्रकार यहाँ रंगभूमिमें निर्जराका स्वाँग प्रवेश करता है

अब, सर्व स्वाँगको यथार्थ जाननेवाले सम्यग्ज्ञानको मंगलरूप जानकर आचार्यदेव मंगलके लिये प्रथम उसीकोनिर्मल ज्ञानज्योतिको हीप्रगट करते हैं :

श्लोकार्थ :[परः संवरः ] परम संवर, [रागादि-आस्रव-रोधतः ] रागादि आस्रवोंको रोकनेसे [निज-धुरां धृत्वा ] अपनी कार्य-धुराको धारण करके (अपने कार्यको यथार्थतया सँभालकर), [समस्तम् आगामि कर्म ] समस्त आगामी क र्मको [भरतः दूरात् एव ] अत्यंततया दूरसे ही [निरुन्धन् स्थितः ] रोक ता हुआ खड़ा है; [तु ] और [प्राग्बद्धं ] पूर्वबद्ध (संवर होनेके पहेले बँधे हुए) [तत् एव दग्धुम् ] कर्मको जलानेके लिये [अधुना ] अब [निर्जरा व्याजृम्भते ] निर्जरा (निर्जरारूप अग्नि) फै ल रही है [यतः ] जिससे [ज्ञानज्योतिः ] ज्ञानज्योति [अपावृतं ] निरावरण होती हुई (पुनः) [रागादिभिः न हि मूर्छति ] रागादिभावोंके द्वारा मूर्छित नहीं होती सदा अमूर्छित रहती है