आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः ।।१३७।।
ज्ञानश्रद्धान नहीं है — भेदज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिए । जो जीव मुनिपद लेकर व्रत-समितिका
परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने शुभ भावोंसे अपनी मुक्ति मानता है
और पर जीवोंका घात होना तथा अयत्नाचाररूपसे प्रवृत्त करना इत्यादि परद्रव्यकी क्रियासे और
परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने अशुभ भावोंसे ही अपना बन्ध होना मानता है तब तक यह
जानना चाहिए कि उसे स्व-परका ज्ञान नहीं हुआ; क्योंकि बन्ध-मोक्ष अपने अशुद्ध तथा शुद्ध
भावोंसे ही होता था, शुभाशुभ भाव तो बन्धके कारण थे और परद्रव्य तो निमित्तमात्र ही था, उसमें
उसने विपर्ययरूप मान लिया । इसप्रकार जब तक जीव परद्रव्यसे ही भलाबुरा मानकर रागद्वेष
जब तक अपनेमें चारित्रमोहसम्बन्धी रागादिक रहता है तब तक सम्यग्दृष्टि जीव रागादिमें तथा रागादिकी प्रेरणासे जो परद्रव्यसम्बन्धी शुभाशुभ क्रियामें प्रवृत्ति करता है उन प्रवृत्तियोंके सम्बन्धमें यह मानता है कि — यह कर्मका जोर है; उससे निवृत्त होनेमें ही मेरा भला है । वह उन्हें रोगवत् जानता है । पीड़ा सहन नहीं होती, इसलिये रोगका इलाज करनेमें प्रवृत्त होता है तथापि उसके प्रति उसका राग नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जिसे वह रोग मानता है उसके प्रति राग कैसा ? वह उसे मिटानेका ही उपाय करता है और उसका मिटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है । इस भाँति सम्यग्दृष्टिके राग नहीं है । इसप्रकार यहाँ परमार्थ अध्यात्मदृष्टिसे व्याख्यान जानना चाहिए । यहाँ मिथ्यात्व सहित रागको ही राग कहा है, मिथ्यात्व रहित चारित्रमोहसम्बन्धी उदयके परिणामको राग नहीं कहा है, इसलिये सम्यग्दृष्टिके ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होती ही है । सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । ऐसे (मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके भावोंके) अन्तरको सम्यग्दृष्टि ही जानता है । पहले तो मिथ्यादृष्टिका अध्यात्मशास्त्रमें प्रवेश ही नहीं है और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है — व्यवहारको सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा निश्चयको भलीभाँति जाने बिना व्यवहारसे ही मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्वमें मूढ़ रहता है । यदि कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्यायसे सत्यार्थको समझ ले तो उसे अवश्य