ज्ञानमयस्य भावस्याभावादात्मानं न जानाति । यस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न
जानाति, स्वरूपपररूपसत्तासत्ताभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात् । ततो य आत्मानात्मानौ न
जानाति स जीवाजीवौ न जानाति । यस्तु जीवाजीवौ न जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति ।
ततो रागी ज्ञानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
श्रुतकेवली जैसा हो तथापि वह ज्ञानमय भावके अभावके कारण आत्माको नहीं जानता और
जो आत्माको नहीं जानता वह अनात्माको भी नहीं जानता, क्योंकि स्वरूपसे सत्ता और पररूपसे
असत्ता — इन दोनोंके द्वारा एक वस्तुका निश्चय होता है; (जिसे अनात्माका – रागका – निश्चय हुआ
हो उसे अनात्मा और आत्मा — दोनोंका निश्चय होना चाहिये ।) इसप्रकार जो आत्मा और
अनात्माको नहीं जानता वह जीव और अजीवको नहीं जानता; तथा जो जीव और अजीवको
नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है, इसलिये रागी (जीव) ज्ञानके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि
नहीं होता ।
भावार्थ : — यहाँ ‘राग’ शब्दसे अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहे गये हैं । और ‘अज्ञानमय’
कहनेसे मिथ्यात्व-अनन्तानुबंधीसे हुए रागादिक समझना चाहिये, मिथ्यात्वके बिना चारित्रमोहके
उदयका राग नहीं लेना चाहिये; क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिको चारित्रमोहके उदय सम्बन्धी
जो राग है सो ज्ञानसहित है; सम्यग्दृष्टि उस रागको कर्मोदयसे उत्पन्न हुआ रोग जानता है और
उसे मिटाना ही चाहता है; उसे उस रागके प्रति राग नहीं है । और सम्यग्दृष्टिके रागका लेशमात्र
सद्भाव नहीं है ऐसा कहा है सो इसका कारण इसप्रकार है : — सम्यग्दृष्टिके अशुभ राग तो
अत्यन्त गौण है और जो शुभ राग होता है से वह उसे किंचित्मात्र भी भला (अच्छा) नहीं
समझता — उसके प्रति लेशमात्र राग नहीं करता; और निश्चयसे तो उसके रागका स्वामित्व ही
नहीं है । इसलिये उसके लेशमात्र राग नहीं है ।
यदि कोई जीव रागको भला जानकर उसके प्रति लेशमात्र राग करे तो — वह भले ही
सर्व शास्त्रोंको पढ़ चुका हो, मुनि हो, व्यवहारचारित्रका पालन करता हो तथापि — यह समझना
चाहिये कि उसने अपने आत्माके परमार्थस्वरूपको नहीं जाना, कर्मोदयजनित रागको ही अच्छा
मान रक्खा है, तथा उसीसे अपना मोक्ष माना है । इसप्रकार अपने और परके परमार्थ स्वरूपको
न जाननेसे जीव-अजीवके परमार्थ स्वरूपको नहीं जानता । और जहाँ जीव तथा अजीव — इन
दो पदार्थोंको ही नहीं जानता वहाँ सम्यग्दृष्टि कैसा ? तात्पर्य यह है कि रागी जीव सम्यग्दृष्टि
नहीं हो सकता ।।२०१-२०२।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं, जिस काव्यके द्वारा आचार्यदेव