जो आत्माको नहीं जानता वह अनात्माको भी नहीं जानता, क्योंकि स्वरूपसे सत्ता और पररूपसे
असत्ता — इन दोनोंके द्वारा एक वस्तुका निश्चय होता है; (जिसे अनात्माका – रागका – निश्चय हुआ
नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है, इसलिये रागी (जीव) ज्ञानके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि
नहीं होता ।
भावार्थ : — यहाँ ‘राग’ शब्दसे अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहे गये हैं । और ‘अज्ञानमय’ कहनेसे मिथ्यात्व-अनन्तानुबंधीसे हुए रागादिक समझना चाहिये, मिथ्यात्वके बिना चारित्रमोहके उदयका राग नहीं लेना चाहिये; क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिको चारित्रमोहके उदय सम्बन्धी जो राग है सो ज्ञानसहित है; सम्यग्दृष्टि उस रागको कर्मोदयसे उत्पन्न हुआ रोग जानता है और उसे मिटाना ही चाहता है; उसे उस रागके प्रति राग नहीं है । और सम्यग्दृष्टिके रागका लेशमात्र सद्भाव नहीं है ऐसा कहा है सो इसका कारण इसप्रकार है : — सम्यग्दृष्टिके अशुभ राग तो अत्यन्त गौण है और जो शुभ राग होता है से वह उसे किंचित्मात्र भी भला (अच्छा) नहीं समझता — उसके प्रति लेशमात्र राग नहीं करता; और निश्चयसे तो उसके रागका स्वामित्व ही नहीं है । इसलिये उसके लेशमात्र राग नहीं है ।
यदि कोई जीव रागको भला जानकर उसके प्रति लेशमात्र राग करे तो — वह भले ही सर्व शास्त्रोंको पढ़ चुका हो, मुनि हो, व्यवहारचारित्रका पालन करता हो तथापि — यह समझना चाहिये कि उसने अपने आत्माके परमार्थस्वरूपको नहीं जाना, कर्मोदयजनित रागको ही अच्छा मान रक्खा है, तथा उसीसे अपना मोक्ष माना है । इसप्रकार अपने और परके परमार्थ स्वरूपको न जाननेसे जीव-अजीवके परमार्थ स्वरूपको नहीं जानता । और जहाँ जीव तथा अजीव — इन दो पदार्थोंको ही नहीं जानता वहाँ सम्यग्दृष्टि कैसा ? तात्पर्य यह है कि रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता ।।२०१-२०२।।