सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः ।
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।।१३८।।
श्लोकार्थ : — (श्री गुरु संसारी भव्य जीवोंको सम्बोधन करते हैं कि – ) [अन्धाः ] हे अन्ध प्राणियों ! [आसंसारात् ] अनादि संसारसे लेकर [प्रतिपदम् ] पर्याय-पर्यायमें [अमी रागिणः ] यह रागी जीव [नित्यमत्ताः ] सदा मत्त वर्तते हुए [यस्मिन् सुप्ताः ] जिस पदमें सो रहे हैं [तत् ] वह पद अर्थात् स्थान [अपदम् अपदं ] अपद है — अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है,) [विबुध्यध्वम् ] ऐसा तुम समझो । (अपद शब्दको दो बार कहनेसे अति करुणाभाव सूचित होता है ।) [इतः एत एत ] इस ओर आओ — इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो,) [पदम् इदम् इदं ] तुम्हारा पद यह है — यह है, [यत्र ] जहाँ [शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः ] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु [स्व-रस-भरतः ] निज रसकी अतिशयताके कारण [स्थायिभावत्वम् एति ] स्थायीभावत्वको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है — अविनाशी है । (यहाँ ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है जो कि द्रव्य और भाव दोनोंकी शुद्धताको सूचित करता है । समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके निमित्तसे होनेवाले अपने भावोंसे रहित होनेसे भावसे शुद्ध है ।)
भावार्थ : — जैसे कोई महान् पुरुष मद्य पी करके मलिन स्थान पर सो रहा हो उसे कोई आकर जगाये — सम्बोधित करे कि ‘‘यह तेरे सोनेका स्थान नहीं है; तेरा स्थान तो शुद्ध सुवर्णमय धातुसे निर्मित है, अन्य कुधातुओंके मिश्रणसे रहित शुद्ध है और अति सुदृढ़ है; इसलिये मैं तुझे जो बतलाता हूँ वहाँ आ और वहाँ शयनादि करके आनन्दित हो’’; इसीप्रकार ये प्राणी अनादि संसारसे लेकर रागादिको भला जानकर, उन्हींको अपना स्वभाव मानकर, उसीमें निश्चिन्त होकर सो रहे हैं — स्थित हैं, उन्हें श्री गुरु करुणापूर्वक सम्बोधित करते हैं — जगाते हैं — सावधान करते हैं कि ‘‘हे अन्ध प्राणियों ! तुम जिस पदमें सो रहे हो वह तुम्हारा पद नहीं है; तुम्हारा पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय है, बाह्यमें अन्य द्रव्योंकी मिलावटसे रहित तथा अन्तरंगमें विकार रहित शुद्ध और स्थाई है; उस पदको प्राप्त हो — शुद्ध चैतन्यरूप अपने भावका आश्रय करो’’ ।१३८।