Samaysar (Hindi). Kalash: 138.

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(मन्दाक्रान्ता)
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः
एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति
।।१३८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३१७
अनादिकालसे रागादिको अपना पद जानकर सोये हुये रागी प्राणियोंको उपदेश देते हैं :
श्लोकार्थ :(श्री गुरु संसारी भव्य जीवोंको सम्बोधन करते हैं कि) [अन्धाः ]
हे अन्ध प्राणियों ! [आसंसारात् ] अनादि संसारसे लेकर [प्रतिपदम् ] पर्याय-पर्यायमें [अमी
रागिणः ]
यह रागी जीव [नित्यमत्ताः ] सदा मत्त वर्तते हुए [यस्मिन् सुप्ताः ] जिस पदमें सो
रहे हैं [तत् ] वह पद अर्थात् स्थान [अपदम् अपदं ] अपद है
अपद है, (तुम्हारा स्थान
नहीं है,) [विबुध्यध्वम् ] ऐसा तुम समझो (अपद शब्दको दो बार कहनेसे अति
करुणाभाव सूचित होता है ) [इतः एत एत ] इस ओर आओइस ओर आओ, (यहाँ
निवास करो,) [पदम् इदम् इदं ] तुम्हारा पद यह हैयह है, [यत्र ] जहाँ [शुद्धः शुद्धः
चैतन्यधातुः ] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु [स्व-रस-भरतः ] निज रसकी अतिशयताके कारण
[स्थायिभावत्वम् एति ] स्थायीभावत्वको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है
अविनाशी है (यहाँ
‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है जो कि द्रव्य और भाव दोनोंकी शुद्धताको सूचित करता है
समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके निमित्तसे होनेवाले
अपने भावोंसे रहित होनेसे भावसे शुद्ध है
)
भावार्थ :जैसे कोई महान् पुरुष मद्य पी करके मलिन स्थान पर सो रहा हो उसे
कोई आकर जगायेसम्बोधित करे कि ‘‘यह तेरे सोनेका स्थान नहीं है; तेरा स्थान तो शुद्ध
सुवर्णमय धातुसे निर्मित है, अन्य कुधातुओंके मिश्रणसे रहित शुद्ध है और अति सुदृढ़ है;
इसलिये मैं तुझे जो बतलाता हूँ वहाँ आ और वहाँ शयनादि करके आनन्दित हो’’; इसीप्रकार
ये प्राणी अनादि संसारसे लेकर रागादिको भला जानकर, उन्हींको अपना स्वभाव मानकर, उसीमें
निश्चिन्त होकर सो रहे हैं
स्थित हैं, उन्हें श्री गुरु करुणापूर्वक सम्बोधित करते हैंजगाते
हैंसावधान करते हैं कि ‘‘हे अन्ध प्राणियों ! तुम जिस पदमें सो रहे हो वह तुम्हारा पद
नहीं है; तुम्हारा पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय है, बाह्यमें अन्य द्रव्योंकी मिलावटसे रहित तथा
अन्तरंगमें विकार रहित शुद्ध और स्थाई है; उस पदको प्राप्त हो
शुद्ध चैतन्यरूप अपने भावका
आश्रय करो’’ ।१३८।