इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, व्यभिचारिणो भावाः, ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः । यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः, नियतत्वावस्थः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः ।
गाथार्थ : — [आत्मनि ] आत्मामें [अपदानि ] अपदभूत [द्रव्यभावान् ] द्रव्यभावोंको [मुक्त्वा ] छोड़कर [नियतम् ] निश्चित, [स्थिरम् ] स्थिर, [एकम् ] एक [इमं ] इस (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) [भावम् ] भावको — [स्वभावेन उपलभ्यमानं ] जो कि (आत्माके) स्वभावरूपसे अनुभव किया जाता है उसे — [तथा ] (हे भव्य !) जैसा है वैसा [गृहाण ] ग्रहण कर । (वह तेरा पद है ।)
टीका : — वास्तवमें इस भगवान आत्मामें बहुतसे द्रव्य-भावोंके बीच ( – द्रव्यभावरूप बहुतसे भावोंके बीच), जो अतत्स्वभावसे अनुभवमें आते हुए (आत्माके स्वभावरूप नहीं, किन्तु परस्वभावरूप अनुभवमें आते हुए), अनियत अवस्थावाले, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं, वे सभी स्वयं अस्थाई होनेके कारण स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवालेका स्थान नहीं हो सकने योग्य होनेसे अपदभूत हैं; और जो तत्स्वभावसे (आत्मस्वभावरूपसे) अनुभवमें आता हुआ, नियत अवस्थावाला, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) है, वह एक ही स्वयं स्थाई होनेसे स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवालेका स्थान हो सकने योग्य होनेसे पदभूत है । इसलिये समस्त अस्थाई भावोंको छोड़कर, जो स्थाईभावरूप है ऐसा परमार्थरूपसे स्वादमें आनेवाला यह ज्ञान एक ही आस्वादने योग्य है ।