स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ।
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम् ।।१४०।।
भावार्थ : — पहले वर्णादिक गुणस्थानपर्यन्त जो भाव कहे थे वे सभी, आत्मामें अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं । आत्मा स्थाई है ( – सदा विद्यमान है) और वे सब भाव अस्थाई हैं, इसलिये वे आत्माका स्थान नहीं हो सकते अर्थात् वे आत्माका पद नहीं है । जो यह स्वसंवेदनरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है । आत्मा स्थाई है और यह ज्ञान भी स्थाई भाव है, इसलिये वह आत्माका पद है । वह एक ही ज्ञानियोंके द्वारा आस्वाद लेने योग्य है ।।२०३।।
श्लोकार्थ : — [तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं ] वह एक ही पद आस्वादनके योग्य है [विपदाम् अपदं ] जो कि विपत्तियोंका अपद है (अर्थात् जिसके आपदायें स्थान नहीं पा सकतीं ) और [यत्पुरः ] जिसके आगे [अन्यानि पदानि ] अन्य (सर्व) पद [अपदानि एव भासन्ते ] अपद ही भासित होते हैं ।
भावार्थ : — एक ज्ञान ही आत्माका पद है । उसमें कोई भी आपदा प्रवेश नहीं कर सकती और उसके आगे सब पद अपदस्वरूप भासित होते हैं (क्योंकि वे आकुलतामय हैं — आपत्तिरूप हैं) ।१३९।
श्लोकार्थ : — [एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन् ] एक ज्ञायकभावसे भरे हुए महास्वादको लेता हुआ, (इसप्रकार ज्ञानमें ही एकाग्र होने पर दूसरा स्वाद नहीं आता, इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः ] द्वन्दमय स्वादके लेनेमें असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक ,