Samaysar (Hindi). Kalash: 139-140.

< Previous Page   Next Page >


Page 319 of 642
PDF/HTML Page 352 of 675

 

background image
ततः सर्वानेवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम्
(अनुष्टुभ्)
एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्
अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ।।१३९।।
(शार्दूलविक्रीडित)
एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन्
स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्
आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्
।।१४०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३१९
भावार्थ :पहले वर्णादिक गुणस्थानपर्यन्त जो भाव कहे थे वे सभी, आत्मामें
अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं आत्मा स्थाई है (सदा विद्यमान है) और
वे सब भाव अस्थाई हैं, इसलिये वे आत्माका स्थान नहीं हो सकते अर्थात् वे आत्माका
पद नहीं है
जो यह स्वसंवेदनरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी
है आत्मा स्थाई है और यह ज्ञान भी स्थाई भाव है, इसलिये वह आत्माका पद है वह
एक ही ज्ञानियोंके द्वारा आस्वाद लेने योग्य है ।।२०३।।
अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं ] वह एक ही पद आस्वादनके योग्य
है [विपदाम् अपदं ] जो कि विपत्तियोंका अपद है (अर्थात् जिसके आपदायें स्थान नहीं
पा सकतीं ) और [यत्पुरः ] जिसके आगे [अन्यानि पदानि ] अन्य (सर्व) पद [अपदानि
एव भासन्ते ]
अपद ही भासित होते हैं
भावार्थ :एक ज्ञान ही आत्माका पद है उसमें कोई भी आपदा प्रवेश नहीं कर
सकती और उसके आगे सब पद अपदस्वरूप भासित होते हैं (क्योंकि वे आकुलतामय
हैं
आपत्तिरूप हैं) ।१३९।
अब यहाँ कहते हैं कि जब आत्मा ज्ञानका अनुभव करता है तब इसप्रकार करता है :
श्लोकार्थ :[एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन् ] एक ज्ञायकभावसे भरे
हुए महास्वादको लेता हुआ, (इसप्रकार ज्ञानमें ही एकाग्र होने पर दूसरा स्वाद नहीं आता,
इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः ] द्वन्दमय स्वादके लेनेमें असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक ,