तथाहि —
आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं ।
सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि ।।२०४।।
आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च तद्भवत्येकमेव पदम् ।
स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृत्तिं याति ।।२०४।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञानके भेदोंका स्वाद लेनेमें असमर्थ ), [आत्म-अनुभव-अनुभाव-
विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्मानुभवके – आत्मस्वादके — प्रभावसे आधीन होनेसे निज
वस्तुवृत्तिको (आत्माकी शुद्ध परिणतिको) जानता – आस्वाद लेता हुआ ( अर्थात् आत्माके
अद्वितीय स्वादके अनुभवनमेंसे बाहर न आता हुआ) [एषः आत्मा ] यह आत्मा [विशेष-उदयं
भ्रश्यत् ] ज्ञानके विशेषोंके उदयको गौण क रता हुआ, [सामान्यं कलयन् किल ] सामान्यमात्र
ज्ञानका अभ्यास करता हुआ, [सकलं ज्ञानं ] सकल ज्ञानको [एकताम् नयति ]े एकत्वमें लाता
है — एकरूपमें प्राप्त करता है ।
भावार्थ : — इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वादके आगे अन्य रस फीके हैं । और
स्वरूपज्ञानका अनुभव करने पर सर्व भेदभाव मिट जाते हैं । ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्तसे होते
हैं । जब ज्ञान सामान्यका स्वाद लिया जाता है तब ज्ञानके समस्त भेद भी गौण हो जाते हैं, एक
ज्ञान ही ज्ञेयरूप होता है ।
यहाँ प्रश्न होता है कि छद्मस्थको पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसे आवे ? इस प्रश्नका
उत्तर पहले शुद्धनयका कथन करते हुए दिया जा चुका है कि शुद्धनय आत्माका शुद्ध पूर्ण स्वरूप
बतलाता है, इसलिये शुद्धनयके द्वारा पूर्णरूप केवलज्ञानका परोक्ष स्वाद आता है ।१४०।
अब, ‘कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे ज्ञानमें भेद होने पर भी उसके (ज्ञानके) स्वरूपका
विचार किया जाये तो ज्ञान एक ही है और वह ज्ञान ही मोक्षका उपाय है’ इस अर्थकी गाथा
कहते हैं : —
मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवल सबहि एक ही पद जु है ।
वह ज्ञानपद परमार्थ है, जो पाय जीव मुक्ती लहे ।।२०४।।
गाथार्थ : — [आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च ] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान,
अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान — [तत् ] तो [एकम् एव ] एक ही [पदम् भवति ]