विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्मानुभवके – आत्मस्वादके — प्रभावसे आधीन होनेसे निज
भ्रश्यत् ] ज्ञानके विशेषोंके उदयको गौण क रता हुआ, [सामान्यं कलयन् किल ] सामान्यमात्र
ज्ञानका अभ्यास करता हुआ, [सकलं ज्ञानं ] सकल ज्ञानको [एकताम् नयति ]े एकत्वमें लाता
है — एकरूपमें प्राप्त करता है ।
भावार्थ : — इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वादके आगे अन्य रस फीके हैं । और स्वरूपज्ञानका अनुभव करने पर सर्व भेदभाव मिट जाते हैं । ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्तसे होते हैं । जब ज्ञान सामान्यका स्वाद लिया जाता है तब ज्ञानके समस्त भेद भी गौण हो जाते हैं, एक ज्ञान ही ज्ञेयरूप होता है ।
यहाँ प्रश्न होता है कि छद्मस्थको पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसे आवे ? इस प्रश्नका उत्तर पहले शुद्धनयका कथन करते हुए दिया जा चुका है कि शुद्धनय आत्माका शुद्ध पूर्ण स्वरूप बतलाता है, इसलिये शुद्धनयके द्वारा पूर्णरूप केवलज्ञानका परोक्ष स्वाद आता है ।१४०।
अब, ‘कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे ज्ञानमें भेद होने पर भी उसके (ज्ञानके) स्वरूपका विचार किया जाये तो ज्ञान एक ही है और वह ज्ञान ही मोक्षका उपाय है’ इस अर्थकी गाथा कहते हैं : —
गाथार्थ : — [आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च ] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान — [तत् ] तो [एकम् एव ] एक ही [पदम् भवति ]