आत्मा किल परमार्थः, तत्तु ज्ञानम्; आत्मा च एक एव पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव
पदं; यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थः साक्षान्मोक्षोपायः । न चाभिनिबोधिकादयो भेदा
इदमेकं पदमिह भिन्दन्ति, किन्तु तेऽपीदमेवैकं पदमभिनन्दन्ति । तथा हि — यथात्र
सवितुर्घनपटलावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकटयमासादयतः प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य
प्रकाशस्वभावं भिन्दन्ति, तथा आत्मनः कर्मपटलोदयावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण
प्राकटयमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिन्द्युः, किन्तु प्रत्युत तमभिनन्देयुः ।
ततो निरस्तसमस्तभेदमात्मस्वभावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यम् । तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः,
नश्यति भ्रान्तिः, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्मपरिहारः, न कर्म मूर्छति, न रागद्वेषमोहा
उत्प्लवन्ते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म उपभुक्तं निर्जीर्यते,
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
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पद है (क्योंकि ज्ञानके समस्त भेद ज्ञान ही हैै); [सः एषः परमार्थः ] वह यह परमार्थ है
( – शुद्धनयका विषयभूत ज्ञानसामान्य ही यह परमार्थ है – ) [यं लब्ध्वा ] जिसे प्राप्त करके [निर्वृतिं
याति ] आत्मा निर्वाणको प्राप्त होता है ।
टीका : — आत्मा वास्तवमें परमार्थ (परम पदार्थ) है और वह (आत्मा) ज्ञान है;
और आत्मा एक ही पदार्थ है; इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है । यह जो ज्ञान नामक
एक पद है सो यह परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष-उपाय है । यहाँ, मतिज्ञानादि (ज्ञानके) भेद
इस एक पदको नहीं भेदते, किन्तु वे भी इसी एक पदका अभिनन्दन करते हैं ( – समर्थन
करते हैं ) । इसी बातको दृष्टान्तपूर्वक समझाते हैं : — जैसे इस जगतमें बादलोंके पटलसे
ढका हुआ सूर्य जो कि बादलोंके विघटन (बिखरने)के अनुसार प्रगटताको प्राप्त होता है,
उसके (सूर्यके) प्रकाशनकी (प्रकाश करनेकी) हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य)
प्रकाशस्वभावको नहीं भेदते, इसीप्रकार कर्मपटलके उदयसे ढका हुआ आत्मा जो कि कर्मके
विघटन-(क्षयोपशम)के अनुसार प्रगटताको प्राप्त होता है, उसके ज्ञानकी हीनाधिकतारूप भेद
उसके (सामान्य) ज्ञानस्वभावको नहीं भेदते, प्रत्युत (उलटे) उसका अभिनन्दन करते हैं ।
इसलिये जिसमें समस्त भेद दूर हुए हैं ऐसे आत्मस्वभावभूत एक ज्ञानका ही अवलम्बन
करना चाहिए । उसके आलम्बनसे ही (निज) पदकी प्राप्ति होती है, भ्रान्तिका नाश होता
है, आत्माका लाभ होता है, अनात्माका परिहार होता सिद्ध है, (ऐसा होनेसे) कर्म बलवान
नहीं हो सकता, रागद्वेषमोह उत्पन्न नहीं होते, (रागद्वेषमोहके बिना) पुनः कर्मास्रव नहीं होता,
(आस्रवके बिना) पुनः कर्म-बन्ध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म भुक्त होकर निर्जराको प्राप्त हो
जाता है, समस्त कर्मका अभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है । (ज्ञानके आलम्बनका ऐसा