कृत्स्नकर्माभावात् साक्षान्मोक्षो भवति ।
(शार्दूलविक्रीडित)
अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्त यो
निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव ।
यस्माभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन्
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ।।१४१।।
किंच —
३२२
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
माहात्म्य है ।)
भावार्थ : — कर्मके क्षयोपशमके अनुसार ज्ञानमें जो भेद हुए हैं वे कहीं ज्ञानसामान्यको
अज्ञानरूप नहीं करते, प्रत्युत ज्ञानको प्रगट करते हैं; इसलिये भेदोंको गौण करके, एक
ज्ञानसामान्यका आलम्बन लेकर आत्माको ध्यावना; इसीसे सर्वसिद्धि होती है ।।२०४।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [निष्पीत-अखिल-भाव-मण्डल-रस-प्राग्भार-मत्ताः इव ] समस्त
पदार्थोंके समूहरूप रसको पी लेनेकी अतिशयतासे मानों मत्त हो गई हो ऐसी [यस्य इमाः अच्छ-
अच्छाः संवेदनव्यक्तयः ] जिसकी यह निर्मलसे भी निर्मल संवेदनव्यक्ति
( – ज्ञानपर्याय, अनुभवमें आनेवाले ज्ञानके भेद) [यद् स्वयम् उच्छलन्ति ] अपने आप उछलती
हैं, [सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः ] वह यह भगवान अद्भुत निधिवाला
चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरसः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगोंके साथ जिसका रस अभिन्न है ऐसा, [एकः
अपि अनेकीभवन् ] एक होने पर भी अनेक होता हुआ, [उत्कलिकाभिः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगोंके
द्वारा [वल्गति ] दोलायमान होता है — उछलता है ।
भावार्थ : — जैसे अनेक रत्नोंवाला समुद्र एक जलसे ही भरा हुआ है और उसमें छोटी
बड़ी अनेक तरंगें उठती रहती हैं जो कि एक जलरूप ही हैं, इसी प्रकार अनेक गुणोंका भण्डार
यह ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजलसे ही भरा हुआ है और कर्मके निमित्तसे ज्ञानके अनेक भेद
(व्यक्तियें) अपने आप प्रगट होते हैं उन्हें एक ज्ञानरूप ही जानना चाहिये, खण्डखण्डरूपसे
अनुभव नहीं करना चाहिये ।१४१।
अब इसी बातको विशेष कहते हैं : —